Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
View full book text
________________
करे तो वे अराधना के बदले विराधना कर बैठते हैं, परन्तु आश्चर्य यह है कि उन्हीं भगवान के शासन में अपने को मानने वाले जैन श्वे० तेरह-पन्थी लोग-गृहस्थ और साधु का आचरण रूप धर्म एक ही बताते हैं और कहते हैं कि
जो काम साधु नहीं करे, वह काम श्रावक के लिए भी करने योग्य नहीं है यदि वह करता है तो पाप करता है। कहते हैं कि--
जे अनुकम्पा साधु करे, तो नवा न वांधे कम । तिण माहिली श्रावक करे, तो तिणने पिण होसी धर्म । साधु श्रावक दोनां तणी, एक अनुकम्पा जान । अमृत सहुने सारिखो, तिणरी मकरो ताण ॥
('अनुकम्पा ढाल दूसरी) साधु श्रावक नी एक रीति छे तुम जोवो सूत्र रो न्याय रे । देखो अन्तर माहि विचारने, कुड़ी काहे करो ताण रे ॥
('अनुकम्पा ढाल तीसरी) . इन और ऐसे ही अन्य कथनों द्वारा तेरह-पन्थी लोग यह कायम करना चाहते हैं कि साधु और श्रावक का एक ही प्राचार है, एक ही रीति है, एक ही अनुकम्पा है । ऐसा ठहरा कर फिर वे साधु के बहाने से जीव रक्षा आदि में भी पाप बताते हैं, परन्तु यह सिद्धान्त उनका बिलकुल गलत है। जीव-रक्षादि कार्य शुभ परिणामों के द्वारा होते हैं । अतः शुभ परिणामों में, किसी भी