Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 16
________________ अंशी-अकाली स्रवन्तीष्वनिरुद्धासु त्रयो वर्णा द्विजातयः । द्विबिन्दुरसना सोमोऽनिरुद्धो दुःखसूचकः । प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवर्षिपितृतर्पणम् ।। द्विजिह्वः कुण्डलं वक्रं सर्गः शक्तिनिशाकरः।। निरुद्धासु न कुर्वी रन्नंशभाक् तत्र सेतुकृत् ।। सुन्दरी सुयशानन्ता गणनाथो महेश्वरः ॥ (प्रायश्चित्ततत्त्व) एकाक्षर कोशमें इसका अर्थ महेश्वर किया गया है। पारिवारिक, दैव तथा पितृकार्य करने का उसी को महाभारत (१३.१७.१२६) में कथन है : अधिकार होता है जिसे पैतृक सम्पत्ति में अंश मिलता है। 'बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः ।' अंशी-पतक सम्पत्ति में अंश (भाग) पाने वाला दायाद : अकल-अखण्ड, एक मात्र परब्रह्म, जिसकी कला (अंश) विभागञ्चेत् पिता कुर्यात् स्वेच्छया विभजेत् सुतान् । या कलना ( गणना, माप ) नहीं है। ज्येष्ठं वा श्रेष्ठभागेन सर्वे वा स्युः समांशिनः ॥ अकाली-सिक्खों में 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग (याज्ञवल्क्य स्मृति) हैं। सहिजधारी वे हैं जो विशेष रूप या बाना नहीं धारण [ पिता अपनी सम्पत्ति का विभाग करते हुए स्वेच्छा करते। इनकी नानकपंथी, उदासी, हन्दाली, मीन, से पुत्रों में विभाजन कर दे। ज्येष्ठ पुत्र को श्रेष्ठ भाग दे रामरंज और सेवापन्थी छ: शाखाएँ हैं। सिंह लोगों के अथवा सभी पुत्र समानांशी हों । ] तीन पंथ है-(१) खालसा, जिसे गुरु गोविन्दसिंह ने अशुमान्-सूर्य का एक पर्याय (अंशवो विद्यन्ते अस्य इति)। चलाया, (२) निर्मल, जिसे वीरसिंह ने चलाया और वंशावली के अनुसार सूर्यवंश के राजा असमञ्ज के पुत्र (३) अकाली, जिसे मानसिंह ने चलाया। अकाली का का नाम: अर्थ है 'अमरणशील' जो 'अकाल पुरुष' शब्द से लिया सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान् । गया है। अकाली सैनिक साधुओं का पंथ है, जिसकी दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः ।। स्थापना सन् १६९० में हुई । उपर्युक्त नवों सिक्ख सम्प्र(रामायण, बालकाण्ड) दाय नानकशाही 'पानग्रंथी' से प्रार्थना आदि करते हैं । [सगर का पुत्र असमञ्ज, असमञ्ज का अंशुमान्, अंशु 'जपजी', 'रहरास', 'सोहिला', 'सुखमनी' एवं 'आसा-दीमान् का दिलीप और दिलीप का पुत्र भगीरथ हुआ।] वार' का संग्रह ही 'पंजग्रंथी' है। ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृति खण्ड, अष्टम अध्याय) में गङ्गा __ अकाली सम्प्रदाय दूसरे सिक्ख सम्प्रदायों से भिन्न है, वतरण के सन्दर्भ में अंशुमान् की कथा मिलती है। क्योंकि नागा तथा गोसाँइयों की तरह इनका यह सैनिक अंशुमाली-सूर्य का पर्याय ( अंशूनां माला अस्ति यस्य संगठन है। इसके संस्थापक मूलतः स्वयं गुरु गोविन्दसिंह थे। इति ) । विष्णुपुराण में आदित्य और अंशुमाली की अकाली नीली धारीदार पोशाक पहनते हैं, कलाई पर लोहे अभिन्नता बतायी गयी है : 'आदित्य इवांशुमाली चचार ।' का कड़ा, ऊँची तिकोनी नीली पगड़ी में तेज धारवाला अ:-स्वर वर्ण का षोडश अक्षर (किन्हीं के मत में यह लोहचक्र, कटार, छुरी तथा लोहे की जंजीर धारण 'अयोगवाह' है। माहेश्वर सूत्रों में इसका योग (पाठ) नहीं करते हैं। है )। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है : सैनिक की हैसियत से अकाली 'निहंग' कहे जाते अकारं परमेशानि विसर्गसहितं सदा । हैं जिसका अर्थ है 'अनियंत्रित' । सिक्खों के इतिहास में अःकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम् ।। इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन् १८१८ में मुट्ठीभर पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा । अकालियों ने मुलतान पर घेरा डाला तथा उस पर विजय सर्वज्ञानमयो वर्ण आत्मादि तत्त्वसंयुतः ॥ प्राप्त की । फूलसिंह का चरित्र अकालियों के पराक्रम पर बिन्दुत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा । प्रकाश डालता है। फूलसिंह ने पहले पहल अकालियों के किशोरवयसः सर्वे गीतवाद्यादितत्पराः ।। नेता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की जब उसने लार्ड मेटकॉफ शिवस्य युवती एषा स्वयं कुण्डलिनी मता ॥ के। अंगरक्षकों पर हमला बोल दिया था। फिर वह रणजीततन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं : सिंह की सेवा में आ गया । फलसिंह के नेतृत्व में अकालियों अः कण्ठको महासेनः कालापूर्णामृता हरिः । ने सन् १८२३ में यूसुफजइयों (पठानों) पर रणजीतसिंह इच्छा भद्रा गणेशश्च रतिविद्यामुखी सुखम् ।। को विजय दिलवायी । इस युद्ध में फूलसिंह को वीरगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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