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_ आवश्यक सूत्र की टीका के उपर्युद्धत अन्तिम उल्लेख से अधिक कोई बात हरिभद्र ने अपने किसी ग्रन्थ में नहीं लिखी । इसलिये उनके जीवन के बारे में इससे अधिक कोई बात, उन्हीं के शब्दों में मिल सके, ऐसी आशा रखना तो सर्वथा निरर्थक है । परन्तु परवर्ती ग्रन्थों में उनके विषय में कई प्रकार की भिन्न-भिन्न बातें लिखी हुई अवश्य मिलती हैं । इस लेख का उद्देश्य हरिभद्र के चरित वर्णन करने का नहीं है, परन्तु पाठकों के सूचनार्थ, मुख्य कर जिन-जिन ग्रन्थों में हरिभद्र के जीवन सम्बन्धी छोटे-बड़े उल्लेख मिलते हैं उनके नाम यहां पर निर्दिष्ट हैं ।
इन ग्रन्थों में सबसे विशेष उल्लेख योग्य प्रभाचन्द्र रचित प्रभावकचरित है । यह ग्रन्थ विक्रम सम्वत् १३३४ में बना है । इस ग्रन्थ के ९ वें प्रबन्ध में, उत्तम प्रकार की काव्य शैली में विस्तार पूर्वक हरिभद्र का जीवन चरित वर्णित है ( इस चरित में कही गई बातें कहां तक
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अन्तिम वाक्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि हरिभद्र के दीक्षाप्रदायक गुरु तो विद्याधरगच्छीय आचार्य जिनदत्त थे। जिनभटसरिया तो हरिभद्र के विद्या- गुरु होंगे या अन्य किसी कारण उन्हें वे अपने विशेष पूज्य समझते होंगे इसी लिये, इस उपर्युक्त वाक्य में उन्होंने प्रथम जिनभट का नामोल्लेख किया है और अपने को उनका आज्ञाधारक ( निगदानुसारिणो ) बतलाया है । इस प्रकार जिनभट और जिनदत्त दोनों हरिभद्र के समान पूज्य होने के कारण कहीं तो उन्होंने जिदत्तसूरि का ( जैसा कि समराइच्चकहा के अंत में) उल्लेख किया है और कहीं जिनभटसूरि का । (द्रष्टव्य, प्रज्ञापनास त्रवृत्ति का अन्तिम पद्य किल्हॉर्न की रिपोर्ट पृ० ३१) । प्रभावकचरित आदि ग्रन्थों में यद्यपि हरिभद्र के गुरु का नाम मात्र जिनभट ही लिखा हुआ मिलता है, परन्तु उसके कथन की अपेक्षा साक्षात् ग्रन्थकार का यह उपर्युक्त कथन विशेष प्रामाणिक होना चाहिए। डॉ० जेकोबी ने जो उनके गुरु का नाम जिनभद्र बतलाया है वह इस उल्लेख से भ्रान्तिमूलक सिद्ध हो जाता है । जिनभट और जिनभद्र शब्द के बोलने और लिखने में प्राय: समानता ही होने के कारण, इस भ्रान्ति का होना बहुत स्वाभाविक है । रही बात, शीलाङ्क और हरिभद्र के समकालीन होने की, सो उसका निर्णय तो इस निबन्ध का अगला भाग पढ़ लेने पर अपने आप हो जायेगा |].
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