Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 20
________________ ( १५ ) इस प्रकार इन सब ग्रन्थकारों के मत से हरिभद्रसूरि का सत्तासमय विक्रम की छठीं शताब्दी है और उनका स्वर्गवास सं० ५८५ (ई० सं० ५२९) में हुआ था। परन्तु इसी प्रकार के बाह्य-प्रमाणों में कुछ ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनके कारण इस गाथोक्त समय की सत्यता के बारे में विद्वानों को बहुत समय से सन्देह उत्पन्न हो रहा है। इन प्रमाणों में जो मुख्य उल्लेख योग्य है, वह बहुत महत्त्व का और उपयुक्त ‘समयसाधक प्रमाणों से भी बहुत प्राचीन है। यह प्रमाण महात्मा सिद्धर्षि के महान् ग्रन्थ उपमितिभवप्रपञ्चकथा में उल्लिखित है। यह कथा संवत् ९६२ के ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, गुरुवार के दिन, जब चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में स्थित था, तब समाप्त हुई थी। ऐसा स्पष्ट उल्लेख इस कथा की प्रशस्ति में सिद्धर्षि ने स्वयं किया है । यथा-- संवत्सरशतनवके द्विषष्टिसहितेऽतिलविते चास्याः । ज्येष्ठे सितपञ्चम्यां पुनर्वसौ गुरुदिने समाप्तिरभूत् ।। यद्यपि ग्रन्थकर्ता ने यहां पर मात्र केवल संवत्' शब्द का ही प्रयोग किया है जिससे स्पष्टतया यह नहीं ज्ञात हो सकता कि वीर, 'विक्रम, शक, गुप्त आदि संवतों में से प्रस्तुत में कौन सा संवत् कथाकार को विवक्षित है, तथापि, संवत के साथ मास, तिथि, वार और मक्षत्र का भी स्पष्ट उल्लेख किया हुआ होने से, ज्योतिर्गणित के नियमानुसार गिनती करने पर, प्रकृत में विक्रम संवत् का ही विधान किया गया है, यह बात स्पष्ट ज्ञात हो जाती है। सिद्धर्षि के लिखे हुए इस संवत्, मास और तिथि आदि की तुलना ई० स० के साथ की जाय तो, गणित करने से, ९०६ ई० के मई महीने की पहली तारीख के बराबर इसकी एकता होती है। इस तारीख को भी वार गुरु ही आता है और चन्द्रमा भी सूर्योदय से लेकर मध्याह्न काल के बाद तक पुनर्वसु नक्षत्र में ही रहता है। १. किसी-किसी की कल्पना इस संवत् को वीर-निर्वाण-संवत् मानने की है । अगर इस कल्पना के अनुसार गणित करके देखा जाय तो वीर सं. ६६२ के ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन ई. स. ४३६ के मई मास की ७वीं सारी व आती है । वार उस दिन भी गुरु ही मिलता है, परन्तु चन्द्रमा उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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