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वृत्तिके अवलोकनसे पुनः स्थिर होना, इत्यादि प्रकारकी बातें लिखते हैं, वे कहां तक सत्य हैं इसका कोई निर्णय नहीं हो सकता । ललितविस्तरा की पञ्जिका लिखनेवाले मुनिचंद्रसूरि, जो सिद्धर्षि से मात्र २०० वर्ष बाद हुए हैं वे भी इस प्रवाद की पुष्टि में प्रमाणरूप गिना जाय, ऐसा ही अपना अभिप्राय लिखते हैं । परंतु, इधर जब हम एक तरफ ललितविस्तरा में चर्चित विषय का विचार करते हैं और दूसरी तरफ उपमि० में वर्णित सिद्धर्षि के आन्तर जीवन का अभ्यास करते हैं तब इन दोनों ग्रन्थों में, इस प्रचलित प्रवाद की सत्यता का निश्चायक ऐसा कोई भी प्रमाण हमारी दृष्टि में नहीं आता । ललितविस्तरा में यद्यपि अर्हदेवकी आप्तता और पूज्यता बड़ी गंभीर और हृदयङ्गमरीति से स्थापित की गई है, तथापि उसमें ऐसा कोई विशेष विचार नहीं है जिसके अवलोकन से, बौद्धन्यायशास्त्र के विशिष्ट अभ्यास के कारण सिद्धर्षि जैसे प्रतिभाशाली और जैनशास्त्र के पारदर्शी विद्वान् का स्वधर्मसे चलायमान हो जानेवाला मन सहज में पुनः स्थिर हो जाय । हां, यदि हरिभद्र के ही बनाये हुए अनेकान्तजयपताकादि ग्रंथोंके लिये ऐसा विधान किया हुआ होता तो उसमें अवश्य सत्य माननेकी श्रद्धा उत्पन्न हो सकती है । क्योंकि उन ग्रंथों में बौद्धशास्त्र के समग्र कुतर्कों का बड़ी अकाट्य युक्तियों द्वारा संपूर्ण निराकरण किया गया है। दूसरी बात यह है कि, यदि सिद्धर्षि का उक्त प्रवादानुसार वैसा जो विश्वविश्रुत धर्मभ्रंश हुआ होता तो उसका जिक्र वे उपमिति के प्रथम प्रस्ताव में अपने 'स्वसंवेदन' में अवश्य करते । क्यों कि सांसारिक कुवासनाजन्य धर्मभ्रंश का वर्णन विस्तार के साथ उन्होंने दो-तीन जगह किया है (द्रष्टव्य, उप० पृ. ९३-९४) परंतु दार्शनिक कुसंस्कारजन्य धर्मभ्रंश का उल्लेख कहीं भी नहीं किया है । यद्यपि एक जगह, कुतर्क वाले ग्रन्थ
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१. मुनिचन्द्रसरिने पञ्जिका में
ललितविस्तरावृत्ति की विवृत्ति
करने के लिये अपनी असमर्थता बताते हुए निम्नलिखित पद्य लिखा है ।
'या बुद्ध्वा किल सिद्ध साधु र खिलव्याख्यातृचूड़ामणिः
सम्बुद्ध: सुगतप्रणीतसमयाभ्यासाञ्चलच्चेतनः ।
यत्कर्तुः स्वकृती पुनर्गुरुतया चक्र े नमस्यामसौ
को ह्य ेनां विवृणोतु नाम विवृति स्मृत्यं तथाप्यात्मनः ॥'
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