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इस टिप्पणी का आशय यह है कि व्याख्याकार ने जो ऊपर के अवतरण में 'त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम्' यह सूत्र लिखा है उसके स्थान में लिङ्गपुनास्त्रिरूपम्' यह सूत्र लिखना चाहिए । क्योंकि वह सूत्र तो आचार्य धर्मोत्तर का बनाया हुआ है; दिङ्नाग का नहीं, दिङ्नाग का तो यही पिछला सूत्र है । ऐसी स्थिति में यहां पर जो धर्मोत्तरीयसूत्र लिखा गया है उसका समाधान यों कर लेना चाहिए कि धर्मोत्तर का सूत्र भी प्राकृत सूत्रानुरूप ही अनुमान का लक्षण प्रदर्शित करता है, इसलिये इन दोनों में परस्पर अर्थसाम्य होने से हरिभद्र ने जो (कदाचित् विस्मृति के कारण ?) धर्मोत्तर का सूत्र लिख दिया है तो उसमें कोई ऐसा विशेष विरोध नहीं दिखाई देता ।
टिप्पणीकार के इस समाधान से न्यायशास्त्र के अभ्यासियों का तो समाधान हो जायगा परन्तु इतिहास के अभ्यासियों का नहीं । ऐतिहासिकों के लिये तो इससे एक नया ही प्रश्न उठ खड़ा होता है । टिप्पणी लेखक के कथनानुसार यदि 'त्रिरूपालिङ्गाल्लिङ्गनि ज्ञानमनुमानं' यह सूत्र धर्मोत्तर के बनाये हुए किसी ग्रन्थ का है तो यहां पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह धर्मोत्तर कौन और कब हुए । धर्मकीर्ति के बनाये हुए न्यायबिन्दु नामक ग्रन्थ पर टीका लिखने वाले धर्मोत्तर का नाम विद्वानों में प्रसिद्ध है । प्रमाणपरीक्षा, अपोहप्रकरण, परलोकसिद्धि, क्षणभंगसिद्धि और प्रमाण ? विनिश्चय व्याख्या आदि ग्रन्थ भी उनके बनाये हुए कहे जाते हैं। सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने पूर्वोक्त इतिहास ( पृ० १३१ ) में इन धर्मोत्तर का समय ई. सन् ८४७ के आसपास स्थिर किया है । यदि यह समय ठीक है तो फिर हरिभद्र द्वारा लिखित उक्त सूत्र के रचयिता धर्मोत्तर, इन प्रसिद्ध धर्मोत्तर से भिन्न-कोई दूसरे ही प्राचीन धर्मोत्तर होने चाहिए क्योंकि हरिभद्र का देहविलय ई० सन् की आठवीं शताब्दी के तीसरे पाद में हो चुका होगा यह सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है ।
बौद्ध मत में धर्मोत्तर नाम से प्रसिद्ध दो आचार्य हो गये हैं ऐसा प्रमाण महान् जैन तार्किक विद्वान् वादी देवसूरि के स्याद्वादरत्नाकर नामक प्रतिष्ठित तर्कग्रन्थ में मिलता है । इस ग्रन्थ के प्रथम परिच्छेद के 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्' इस दूसरे सूत्र की व्याख्या में
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