Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ ( ७१ ) [१] उक्तं च वादिमुख्येन [ टीका-मल्लवादिना सम्मतो ] स्वपरसत्त्वव्युदासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्, अतो यद्यपि सन्न भवतीत्यसत्, तथापि परद्रव्यादिरूपेण सतः प्रतिषेधात् तस्य च तत्रासत्त्वात् तत्स्वरूपसत्त्वानुबन्धात् न निरुपाख्यमेव तत् । इति प्रसज्यप्रतिपेधपक्षोदितदोषाभावः [अनेकान्तजयपताका, काशी, पृ० ४७ ] [२] उक्तं च वादिमुख्येन (श्रीमल्लवादिना सम्मतौ)-'न विषय ग्रहणपरिणामादृतेऽपरः संवेदने विषयप्रतिभासो युज्यते युक्त्ययोगात् । (अनेकान्तजयपताका, पृ० ९८) जैन दन्तकथा के अनुसार मल्लवादी का अस्तित्व ईस्वी की चौथी शताब्दी में माना जाता है, परन्तु इधर उपयुक्त वर्णनानुसार धर्मोत्तर रचित न्यायबिन्दु टीका की टिप्पणी के कर्ता भी मल्लवादी नामक जैनाचार्य ही ज्ञात होते हैं। आज तक जैनसाहित्य में केवल एक ही मल्लवादी के होने का उल्लेख देखा गया है, इसलिये धर्मोत्तरीय टीकाटिप्पणी के कर्ता मल्लवादी और द्वादशारनयचक्र के कर्ता प्रसिद्ध मल्लवादी दोनों एक ही समझे जायें तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है। और इसी कारण से डा० सतीशचन्द्र ने अपने निबन्ध में मल्लवादी का सत्ता समय समुचित रूप से वही लिखा है जो धर्मोत्तर के लिये स्थिर किया गया है। परन्तु हरिभद्र के ग्रन्थ में मल्लवादी का उक्त प्रकार स्पष्ट नामोल्लेख होने से 'वादी मुख्य' और सुप्रसिद्ध मल्लवादी तो नि सन्देह रीति से हरिभद्र के अस्तित्व-समय से-अर्थात ईस्वी की ८ वीं शताब्दी से पूर्व में ही हो चुके हैं। इसलिये धर्मोत्तर टीका की टिप्पणी लिखने वाले मल्लवादी को द्वितीय मल्लवादी समझना चाहिए और वे धर्मोत्तर के बाद किसी समय में हुए ऐसा मानना चाहिए। इस प्रकार हरिभद्र के ग्रंथों से हमें एक नये धर्मोत्तर और नये मल्लवादी का पता लगता है। १ द्रष्टव्य पूर्वोक्त, मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र का इतिहास, प. ३४-३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80