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हरिभद्रसूरि और शंकराचार्य
वेदान्तमतप्रस्थापक आदि शंकराचार्य के सत्ता-समय के विषय में भी हरिभद्र के समयनिर्णय से कुछ प्रकाश डाला जा सकता है। शंकराचार्य के समय के बारे में अनेक विद्वानों के अनेक विचार हैं। कोई उन्हें ठेठ महात्मा गौतम बुद्ध के समकालीन, तो कोई महाकवि कालिदास और नृपति विक्रमादित्य के समकालीन बतलाते हैं। कोई ईसवी की पहली शताब्दी में, कोई चौथी में, कोई पांचवीं में, कोई छठी में, कोई ७वीं में, कोई आठवीं में, कोई नवीं में और यहाँ तक कि कोई १४ वीं जैसे बिल्कुल अर्वाचीन काल तक में भी उनका होना मानते हैं। परंतु इन सब विचारों में से हमें, हरिभद्र के साहित्य का अवलोकन करने के बाद, प्रो. काशीनाथ बापू पाठक का विचार युक्तिसंगत मालम देता है। उनके विचारानुसार शंकराचार्य ईसवी की ८ वीं शताब्दी के अंत में और नवीं के प्रारंभ में हुए होने चाहिए। उन्होंने एक पूरातन सांप्रदायिक श्लोक के आधार पर शक सं० ७१० ( ई. स. ७८८ ) में शंकराचार्य का जन्म होना बतलाया है। इसी समय के सम्बन्ध में अन्यान्य विद्वानों के अनेक अनुकल-प्रतिकल अभिप्राय जो आज तक प्रकट हुए हैं उनमें सबसे पिछला अभिप्राय प्रसिद्ध देशभक्त श्रीयुत् बाल गंगाधर तिलक का, उनके गीतारहस्य में प्रकट हुआ है। श्रीयुत् तिलक महाशय के मत से "इस काल को सौ वर्ष और भी पीछे हटाना चाहिए। क्योंकि महानुभाव पन्थ के दर्शनप्रकाश नामक ग्रंथ में यह कहा है कि 'युग्मपयोधिरसान्वितशाके' अर्थात शक संवत् ६४२ ( विक्रमी संवत् ७७०) में श्रीशंकराचार्य ने गुहा में प्रवेश किया और उस समय उनकी आयु ३२ वर्ष की थी । अतएव यह सिद्ध होता है कि उनका जन्म शक ६१० ( वि. सं. ७४५ ) में हुआ।" ( गीतारहस्य, हिन्दी आवृत्ति, पृ. ५६४) हमारे विचार से तिलक महाशय का यह कथन विशेष प्रामाणिक नहीं प्रतीत होता। क्योंकि शंकराचार्य यदि ७ वीं शताब्दी में, अर्थात हरिभद्र के पहले हुए होते
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