Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 74
________________ ( ६९ ) सोऽयं साहित्यज्ञताभिमानात् तत्र वृद्धधर्मोत्तरमधरयति, स्वयं त्वेकं व्याचष्ट इति किमन्यदस्य देवानां प्रियस्य श्लाघनीयता प्रज्ञायाः । ( स्याद्वादरत्नाकर, पृ. १२ ) इन अवतरणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि धर्मोत्तर नाम के दो आचार्य हो गये हैं । अतः हरिभद्र ने ऊपर जिस धर्मोत्तरीयसूत्र को उद्धत किया है उसके कर्त्ता, न्यायविन्दु और धर्मकीर्ति कृत ग्रन्थों के टीकाकार धर्मोत्तर नहीं परन्तु उनके पूर्वज वृद्धधर्मोत्तर होने चाहिए । नहीं तो फिर इन अर्वाचीन धर्मोत्तर का समय कम से कम १०० वर्ष पीछे हटाना चाहिए । परन्तु इन प्रसिद्ध धर्मोत्तर के, हरिभद्र के पूर्वंग न होने में एक इतर प्रमाण भी प्राप्त होता है । धर्मोत्तर रचित न्यायविन्दु टीका पर मल्लवादी नाम के एक जैन विद्वान् की लिखी हुई टिप्पणी उपलब्ध है । इससे ज्ञात होता है कि धर्मोत्तर ने अपनी टीका में कई जगह न्यायबिन्दु के पूर्वटीकाकार विनीतदेव की ( और साथ में शान्तिभद्र की भी ) की हुई टीका को दूषित बतलाई है और उनका खण्डन किया है । टिप्पणी लेखक के इस बात के सूचक कुछ वाक्य ये हैं १ - सम्यग्ज्ञानेत्यादिना (१.५) विनीतदेव व्याख्यां दूषयति । ( पृ० ३ ) २ - हेयोऽर्थ इत्यादिना विनीतदेवस्य व्याख्या दूषिता । (पृ. १३) ३ - उत्तरेण ग्रन्थेन सर्वशब्द (५.२ ) इत्यादिना टीकाकृतां व्याari दूषयति । विनीत देवशान्तभद्राभ्यामेवमाशङ्कय व्याख्या-तम् । (पृ. १३ ) ४ - यथार्थाविनाभावेत्यादिना ( ६.१३ ) अनेन विनीतदेवशान्तभद्रयोर्व्याख्या च दूषिता । ( पृ. १६ ) . ५ - अनेन लक्ष्यलक्षणभाव दर्शयता विनीतदेव व्याख्यानं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धरूपं प्रत्युक्तम् (पृ. १७ ) . १ बिब्लिओथिका बुद्धिका [सेंट पिटर्सवर्ग, रूस ] में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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