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'लक्ष्यलक्षणभाववाचक' शब्दों के विधानाविधान की मीमांसा करते हुए शुरू में ही धर्मोत्तर के तद्विषयक विचारों की आलोचना की है । ग्रंथकर्त्ता ने स्वयं इन धर्मोत्तर को, धर्मकीर्ति के 'न्यायविनिश्चय' और 'न्यायविन्दु' नामक प्रमाण ग्रन्थों के व्याख्याता बतलाये हैं और उनकी की हुई उन व्याख्याओं में से कुछ अवतरण भी उद्धृत किये हैं । फिर इन धर्मोत्तर को 'वृद्धधर्मोत्तरानुसारी' ( वृद्ध धर्मोत्तर के विचारों का अनुसरण करने वाले) तथा 'वृद्धसेवाप्रसिद्ध' (वृद्ध [ धर्मोत्तर ] की सेवा करने से प्रसिद्धि पाने वाले) ऐसे विशेषणों से सम्बोधित कर इन्हें किसी वृद्ध धर्मोत्तर के अनुयायी बतलाये हैं और अन्त में इनके विचार-विधान से उन वृद्ध धर्मोत्तर के तद्विषयक विचारों का खंडित होना बतलाकर, इनके कथन को स्वमत विरोधी सिद्ध किया गया है । वादी देवसूरि के तद्विषयक सब लेखांश इस प्रकार हैं
:
(१) अत्राह धर्मोत्तरः - लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये लक्ष्ममनूद्य लक्षणमेव विधीयते । लक्ष्यं हि प्रसिद्ध भवति ततस्तदनुवाद्यम्, लक्षणं पुनरप्रसिद्धमिति तद्विधेयम् । अज्ञातज्ञापनं विधिरित्यभिधानात् । सिद्धे तु लक्ष्यलक्षणभावे लक्षणमनूद्य लक्ष्यमेव विधीयते इति ।
(स्याद्वादरत्नाकर पृ० १० )
(२) साधो ! सौगत ! भूभर्तुर्धर्म कीर्तनिकेतने । व्यवस्थां कुरुषे नूनमस्थापितमहत्तमः ॥
स हि महात्मा (धर्मकीर्तिः) विनिश्चये ( न्यायविनिश्चये ) प्रत्यक्षमे, न्यायबिन्दौ तु प्रत्यक्षानुमाने द्वे अप्यप्रसाध्यैव तल्लक्षणानि प्रणयति स्म । किञ्च शब्दानित्यत्वसिद्धये कृतकत्वमसिद्धमपि सर्वमुपन्यस्य पश्चात् तत्सिद्धिमभिदधानोऽपि न लक्षणस्य तामनुमन्यसे इति
"
स्वाभिमानमात्रम् । अपि च प्रत्यक्षलक्षणव्याख्यालक्षणे 'लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये' इत्यादिना लक्षणस्यैव विधिमभिधित्से विधेरेवापराधान्न बुद्धेः यतो न्यायविनिश्चयटीकायां स्वार्थानुमानस्य लक्षणे 'तत्कथं त्रिरूपलिङ्गग्राहिण एव दर्शनस्य नानुमानत्वप्रसङ्गः' इति पर्यनुयुञ्जान 'एतदेव सामर्थ्यप्राप्तं दर्शयति यदनुमेयेऽर्थे ज्ञानं तत्स्वार्थमिति' इत्यनुमन्यमानश्चानुमापयसि स्वयमेव लक्ष्यस्यापि विधिम् । स्पष्टमेवाभिदधासि च न्यायबिन्दुवृत्तौ एतस्यैव लक्षणे 'तिरूपाच्च लिङ्गाद्यदनुमेयालम्बनं ज्ञानं तत्स्वार्थमनुमानमिति । ( द्रष्टव्य, न्याय
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