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हरिभद्र और धर्मोत्तर
दिङ्नागाचार्य रचित 'न्यायप्रवेश प्रकरण' पर हरिभद्र ने शिष्यहिता नाम की एक संक्षिप्त और स्फुट व्याख्या लिखी है।' इस व्याख्या के प्रारम्भ में जहां 'अनुमान' शब्द की व्युत्पत्ति और उसका लक्षण लिखा है वहां एक उल्लेख विशेष उल्लेखनीय है जो इस प्रकार है :
मीयतेऽनेनेति मानं परिच्छिद्यत इत्यर्थः । अनुशब्दः पश्चादर्थे, पश्चान्मानमनुमानम् । पक्षधर्म ग्रहणसम्बन्धस्मरणपूर्वकमित्यर्थः । वक्ष्यति च त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि [ज्ञान] मनुमानम् ।'
__ इस अवतरण के अन्त में जो 'वक्ष्यति' क्रिया लिख कर 'त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम्' यह सुत्र लिखा है उस पर किसी एक पुरातन पण्डित ने निम्नलिखित टिप्पणी लिखी है :
नन्वेतत्सूत्रं धर्मोत्तरीयं न तु प्रकृतशास्त्रसत्कम् । एतच्छास्त्रसत्कमेतत्सूत्रम्-'लिङ्ग पुनरित्यादि ।' तत्कथं 'वक्ष्यति च' इति प्रोच्यते ? सत्यमेतत् । यद्यप्यत्रैवं विधं सूत्रं नास्ति तथा [पि धर्मोत्तरीयसूत्रमप्यत्र सूत्रोक्तानुमानलक्षणाभिधायिकमेवेत्यर्थतोऽत्रत्यधर्मोत्तरीयसूत्रयोः साम्यमेवेत्यर्थापेक्षया 'वक्ष्यति' इति व्याख्येयमिति न विरोधः ।
२. यह व्याख्या सेंट पीटर्सवर्ग [अब, पेट्रोग्राड] से प्रकट होनेवाली Bibliotheca Buddhica में प्रकाशित है। इसके बारे में विशेष वृत्तान्त जानने के लिये 'जैनशासन' नामक पत्र के दीपावली के खास अंक में छपा हुआ डा. मिरोनो का Dignaga's Nyayapravesa and Haribhadra's Commntary on it नामक निबन्ध देखना चाहिए।
२. डेकन कालेज के पुस्तकालय की हस्तलिखित प्रति, नं. ७३८, १८७५-७६, पृ. २.
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