Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ ( ६४ ) रक्षित का समय यदि ठीक है तो हरिभद्र और शान्तिरक्षित दोनों समकालीन सिद्ध होते हैं । -- कुछ विद्वान् ऐसे समकालीन पुरुषों को लक्ष्य कर ऐसी शंका किया करते हैं - उस पुरातनसमय में आधुनिक काल की तरह मुद्रण यंत्र, समाचारपत्र और रेलवे आदि अतिशीघ्रगामी वाहनों वगैरह जैसे साधन नहीं थे कि जिनके द्वारा कोई व्यक्ति तथा उसका लेख या विचार तत्काल सारे देश में परिचित हो जाय । उस समय के लिये किसी विद्वान् का अथवा उसके बनाये हुए ग्रन्थ का अन्यान्य विद्वानों को परिचय मिलने में कुछ न कुछ कालावधि अवश्य अपेक्षित होती थी । इस विचार से, यदि शान्तिरक्षित उक्तरीत्या ठीक हरिभद्र के समकालीन ही थे तो फिर हरिभद्र द्वारा उनके ग्रंथोक्त विचारों का प्रतिक्षेप किया जाना कैसे संभव माना जा सकता है ? इस विषय में हमारा अभिप्राय यह है कि - यह कोई नियम नहीं है, कि उस समय में समकालीन विद्वानों का दूसरे संप्रदाय वालों से तुरन्त परिचय हो ही नहीं सकता था । यह बात अवश्य है कि आजकल जैसे कोई व्यक्ति या विचार चार छह महीने ही में मुद्रालयों और समाचारपत्रों द्वारा सर्वविश्रुत हो जाता है, उतनी शीघ्रता के साथ उस समय में नहीं हो पाता था । परंतु ५-१० वर्ष जितनी कालावधि में तो उस समय में भी उत्तम विद्वान् यथेष्ट प्रसिद्धि प्राप्त कर सकता था । इसका कारण यह है कि उस समय जब कोई ऐसा असाधारण पण्डित तैयार होता था तो फिर वह अपने पाण्डित्य का परिचय देने के लिये और दिग्वि जय करने के निमित्त देश-देशान्तरों में परिभ्रमण करता था और इस तरह अनेक राज्यसभाओं में और पण्डित - परिषदों में उपस्थित हो कर वहाँ के अन्यान्य विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ या वाद-विवाद किया करता था । इसी तरह जब कोई विद्वान् किसी विषय का कोई खास नवीन और अपूर्व ग्रंथ लिखता था तो उसकी अनेक प्रतियाँ लिखवा कर प्रसिद्ध शास्त्र भण्डारों, मन्दिरों और धर्मस्थानों तथा स्वतंत्र विद्वानों के पास भेंट रूप से या अवलोकनार्थ भेजा करता था । इसलिये प्रख्यात विद्वान् को अपने जीवन काल ही में यथेष्ट प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने में और उसके बनाये हुए ग्रंथों का, दूसरों द्वारा आलोचनप्रत्यालोचन किये जाने में कोई आपत्ति नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80