Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ परिशिष्ट: १ हरिभद्र और शान्तिरक्षित शास्त्रवार्तासमुच्चय के चतुर्थ स्तवक के निम्नलिखित श्लोक में हरिभद्र ने बौद्ध पण्डित शान्तिरक्षित के एक विचार का प्रतिक्षेप किया है। यथा एतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना। 'नासतो भावकर्तृत्वं तदवस्थान्तरं न सः' ।।' इस श्लोक की स्वोपज्ञ टीका में 'सूक्ष्मबुद्धिना-शान्तिरक्षितेम' ऐसा निर्देश कर स्पष्ट रूप से शान्तिरक्षित का नामोल्लेख किया है। डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपनी 'मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र का इतिहास' नामक पुस्तक में (पृ० १२४) आचार्य शान्ति (न्त) रक्षित का समय ई० स० ७४९ के आसपास स्थिर किया है। इन शान्तिरक्षित ने, हरिभद्र के शास्त्रवार्तासमुच्चय के समान दार्शनिक विषयों की आलोचना करने वाला 'तत्त्व-संग्रह' नामक एक प्रौढ़ ग्रन्थ बनाया है। इस ग्रन्थ पर पञ्जिका नाम की एक टीका भी उन्हीं के समकालीन नालन्दा विद्यापीठ के तर्कशास्त्राध्यापक आचार्य कमल शील ने उसी समय में लिखी है। इस सटीक ग्रंथ का प्राचीन हस्तलेख गुजरात की पुरातन राजधानी पाटन के प्रसिद्ध जैन पुस्तकभांडागार में सुरक्षित है। प्रस्तुत निबन्ध लिखने के समय यह ग्रन्थ सम्मुख न होने से तो हम यह नहीं कह सकते कि हरिभद्र ने जो शान्तिरक्षित का उल्लिखित श्लोकाद्ध उद्ध त किया है वह इसी तत्त्वसंग्रह का है या अन्य किसी दूसरे ग्रन्थ का। परंतु इतना तो हमें विश्वास होता है कि यह श्लोकाद्ध इन्हीं शान्तिरक्षित की किसी कृति में से होना चाहिए। ऐसी स्थिति में डॉ. सतीशचन्द्र का लिखा हुआ शान्ति १. द्रष्टव्ध शास्त्रवार्तासमुच्चय, [दे. ला. पु. मुद्रित.] पृ. १४० २. इस ग्रन्थ भंडार का सूचीपत्र गायकवाड़ ओरिएण्टल इंस्टिट्यूट से प्रकाशित हो चुका है । संपा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80