Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ दिनजहिच्छयफलओ बहुकित्तीकुसुमरेहिराभोओ। आयरियवीरभद्दो अवा (हा) वरो कप्परुक्खो व्व ।। सो सिद्धन्त(म्मि)गुरू, पमाण नाएण (अ)जस्स हरिभद्दो । बहुगन्थसत्थवित्थरपयड (समत्तसुअ) सच्चत्थो । राया (य) खत्तियाणं वंसे जाओ वडेसरो नाम । तस्सुज्जोयणनामो तणओ अह विरइया तेण ॥ . इन गाथाओं में से, प्रथम की १० गाथाओं में कथाकर्ता ने अपनी मूल गुरु परंपरा का वर्णन दिया है जिसका तात्पर्य यह है :-पहले हरिदत्त नाम के एक गुप्तवंशीय आचार्य हए। वे पव्वइया पुरी के तोरसाण नामक राजा के गुरु थे और उनके उपदेश से उस नगरी में, उस राजा ने एक जिन मंदिर बनवाया था। उनके शिष्य देवगुप्त हुए, जो सिद्धान्तों के ज्ञाता और कुशल कवि थे। उनकी कीर्ति आज भी जगत् में फैल रही है। उनके बाद शिवचन्द्रगणी महत्तर नाम के आचार्य हए। उन्होंने देश से (पव्वइया नगरी वाले प्रदेश में से ?) आकर भिल्लमाल (जिसे श्रीमाल भी कहते हैं) नगर में निवास किया। उनके यक्षदत्तगणी क्षमाश्रमण नामक गुणधारक प्रसिद्ध शिष्य हुए जिनके अनेक शिष्यों ने गुजरात देश में देव मंदिर (जिन मंदिर) बनवा कर उसकी शोभा बढ़ाई। इनके शिष्य आगासवप्प नगर में रहने वाले वडेसर नामक क्षमाश्रमण हुए जिनके मुख का दर्शन करके अभव्य जीव भी प्रशान्त हो जाता था। वडेसर के तत्तायरिय नामक बड़े तपस्वी और आचार-धारक शिष्य हुए। इन्हीं तत्तायरिय के शिष्य दाक्षिण्यचिह्न हुए, जिन्होंने ह्रीदेवी के दर्शन से प्रसन्न होकर इस कुवलयमालाकथा की रचना की। इस प्रकार इन गाथाओं में, अपनी मुल पूर्व गुरु परंपरा का वर्णन करके कथाकार ने फिर अनन्तर की ३ (११-१३) गाथाओं में अपने विशिष्ट उपकारी गुरुओं-पूज्यों का सविशेष उल्लेख कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की है। इस गाथा-कुलक का अर्थ इस प्रकार है___'इच्छित फल देने वाले और कीर्ति रूप कुसुमों से अलंकृत होने के कारण नवीन कल्पवृक्ष के समान दिखाई देने वाले आचार्य वीरभद्र तो जिसके सिद्धान्तों के पढ़ाने वाले गुरु हैं और जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना कर समस्त श्रुत (आगमों) का सत्यार्थ प्रकट किया है वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80