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नहीं हुआ कि, इस शताब्दी के कौन से भाग में - कब से कब तक वे विद्यमान थे ? कुवलयमालाकथा के अन्तिम ( प्रशस्ति) लेख का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने से इस प्रश्न का भी यथार्थ समाधान हो जाता है ।
जैन इतिहास के रसिक अभ्यासियों को यह सुनकर आनंद के साथ आश्चर्य होगा कि कुवलयमालाकथा के कर्ता उद्योतनसूरि अपरनाम दाक्षिण्यचिह्न खुद हरिभद्र के एक प्रकार से साक्षात् शिष्य थे ! इस कथा की प्रशस्ति का वह महत्त्व का भाग, जिसमें कर्ता ने स्वकीय गुरु परंपरा आदि का परिचय दिया है, कुछ विस्तृत होने पर भी उसे यहाँ पर उद्धृत कर देने के लोभ का हम संवरण नहीं कर सकते । प्रशस्ति इस प्रकार है
अत्थि पयडा पुरीणं पव्वइया नाम रयणसोहिल्ला । तत्थट्ठिएण भुत्ता पुहई सिरितोरसाणेण ॥ तस्स गुरू हरियत्तो आयरिओ आसि गुत्तवंसीओ । तीए नयरीए दिन्नो जिणनिवेसो तहिं काले ॥ [तस्स ] बहुकलाकुसलो सिद्धन्तवियाणओ कई दक्खो । आयरियदेवगुत्तो अज्जवि विज्जरए कित्ती ( ? ) ॥ सिवचन्दगणी अह मयहरो त्ति सो एत्थ आगओ देसा । सिरिभिल्लमालनयरम्मि संठिओ कप्परुक्खो व्व ॥ तस्स खमासमणगुणो नामेणं जक्खदत्तगणिनामो । सिस्सो महइमहप्पा आसि तिलोए वि पडजसो ||५|| तस्स य सीसा बहुया तववीरियलद्धचरणसंपण्णा । रम्मो गुज्जरदेसो जेहिं कओ देवहरएहिं || आगासवप्पनयरे वडेसरो आसि जो खमासमणो । तस्स मुहदंसणे च्चिय अवि पसमइ जो अहव्वोवि ॥ तस्स य आयारधरो तत्तायरिओ ति नाम मारगुणो । आसि तवतेयनिज्जियपावतमोहो दिणयरो व्व ॥ जो दूसमसलिलपवावेगही रन्तगुणसहस्साण । सोलंगवि उलसालो लग्गणखंभो व्व निक्कंपो ॥ सीसेण तस्स एसा हिरिदेवीदिन्नदंसणमणेण । विलसिरदविखन्न इंधेण ॥१०॥
रइया
कुवलयमाला
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