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( ५८ ) बड़े लंबे लंबे अवतरण दिये हैं। जिनदासगणिमहत्तर ने नन्दीचूर्णि शक संवत् ५९८ (विक्रम संवत् ७३३ = ई० स० ६७६) में समाप्त की थी। इस समय का उल्लेख, इस चणि के अन्त में स्पष्ट रूप से इस प्रकार किया हुआ है :
'शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवनिषु नन्द्यध्ययनचूणिः समाप्ता।"
उदाहरण के लिये, हरिभद्रसूरि ने नन्दीचूणि में से जो पाठ अपनी टीका में उद्ध त किये हैं उनमें से एक-दो पाठ यहाँ पर दिया जा रहा है।
इस सूत्र के प्रारंभ में जो स्थिविरावली प्रकरण है उसकी ३६ वीं गाथा की, जिसमें 'खंदिलायरिय' की प्रशंसा है, व्याख्या हरिभद्र ने इस प्रकार लिखी है
मूल गाथा
'जेसि इमो अणुओगो पयरइ अज्जावि अड्ढभरहम्मि । बहुनयर निग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए॥'
व्याख्या-येषांमनुयोगः प्रचरति, अद्यापि अर्धभरते वैताढयादारतः । बहुनगरेषु निर्गतं प्रसृतं प्रसिद्ध यशो येषां ते बहुनगरनिर्गतयशसः, तान् वन्दे । सिङ्घ (सिंह) वाचकशिष्यान् स्कन्दिलाचार्यान् । 'कह' पुण तेसि अणुओगो ? उच्यते-बारससंवच्छरिए महंते दुभिक्खे काले भत्तट्ठा अण्णण्णतो हिंडियाणं गहणगुणणणुप्पेहाभावाओ विप्पण. ठे सुत्ते, पुणो सुभिक्खे काले जाए महुराए महंते साधुसमुदए खंदि. लायरियप्पमुहसंघेण जो जं संभरइ त्ति एवं संघडियं कालियसुयं । जम्हा एयं महुराए कयं तम्हा माहुरी वायणा भण्णइ। सा य खंदिलायरिय.
१. नन्दीसूत्रचूणि, डेकन कालेज पुस्तक संग्रह नं० ११९७, सन् १८८४-८७. चार-पांच सौ वर्ष पहले के किसी एक जैन विद्वान् ने 'बृहट्टिप्पणिका' नाम की संस्कृत में एक जैन ग्रन्थसूची बनाई है जिसमें भी, ईस चूणि का रचना-काल वि. सं. ७३३ [ अर्थात् शक संवत् ५९८1 लिखा हुआ है । यथा - 'नन्दीसूत्रं ७०० [श्लोक प्रमाणं] चूणि ७३३ वर्षे कृता । स्तंभ० विना नास्ति ।'
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