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( ४९ )
नसोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन जायते ॥ ( २ ) उक्तं च ( भर्तृहरिणा ) -
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'यथानुवाकः श्लोके वेति । "
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( अनेकान्तजयपताका, ( अहमदाबाद ) पृष्ट ४१. ) चीन देश निवासी प्रसिद्ध प्रवासी इत्सिन ई० स० की ७ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में भ्रमण करने को आया था । उसने अपने देश में जाकर ई० स० ६९५ में अपना भ्रमण - वृत्तान्त लिखा । इसमें उसने, उस समय भारत वर्ष में व्याकरण शास्त्र का अध्ययनअध्यापन जिस रीति से प्रचलित था उसका वर्णन लिखा है और साथ में मुख्य-मुख्य वैयाकरणों के नाम भी लिखे हैं । भर्तृहरि के विषय में भी उसने लिखा है कि ये एक प्रसिद्ध वैयाकरण थे और इन्होंने ७००
है और फिर टीका में उसी तरह नाम लिख दिया है । यही क्रम 'शास्त्रवार्ता - समुच्चय' की स्वोपज्ञ टीका में भी उपलब्ध होता है । इस क्रमानुसार ऊपर जो 'शब्दार्थतत्त्वविद्' विशेषण है उसका परिस्फुट टीका में 'शब्दार्थतत्त्वविद् भर्तृहरिः ' ऐसा किया है । अर्थात् इससे शब्दार्थतत्त्वविद्' यह विशेषण भर्तृहरि का है, ऐसा समझना चाहिए । आगे पर जहाँ कहीं इन टीका में से ऐसे मुख्य नामों को उद्धृत करें वहाँ पर पाठक इस नोट को लक्ष्य में रक्खें 1
१. काशी में मुद्रित वाक्यपदीय के प्रथम काण्ड में ये दोनों श्लोक ( पृष्ठ ४६-७ ) पूर्वापर के क्रम से अर्थात् आगे पीछे लिखे हुए मिलते हैं । पिछले श्लोक के चतुर्थ पाद में 'सर्वं शब्देन भासते' ऐसा पाठभेद भी उपलब्ध है । प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वान् विद्यानन्दी ने 'अष्टसहस्री' [ पृ. १३० में और प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' [ पृ. ११] में श्लोकों को वाक्यपदीय के क्रम से उद्धृत किये हैं । वादी 'स्याद्वादरत्नाकर' (पृ. ४३ ) में इनको दिया है ।
भी इन दोनों देवसूरि ने भी
२. वाक्यपदीय, पृ. ८३ में यह पूरा श्लोक इस प्रकार है । यथानुवाकः श्लोको वा सोढत्वमुपगच्छति । आवृत्त्या, न तु स ग्रन्थः प्रत्यावृत्या निरूप्यते ॥ ३. द्रष्टव्य प्रो. मैक्समूलर लिखित India : what it can teach
us ? पृष्ठ २१० ।
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