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इससे स्पष्ट है कि उद्ध त अवतरण को हरिभद्र ने धर्मपाल और धर्मकीर्ति के विचारों का सूचक बतलाया है । धर्मपाल का स्पष्ट नामोल्लेख तो इसी एक जगह हमारे देखने में आया है, परन्तु धर्मकीर्ति का नाम तो पचासों जगह और भी लिखा हआ दिखाई देता है। 'अनेकान्तजयपताका' ग्रंथ खास कर, भिन्न-भिन्न बौद्धाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जैन धर्म के अनेकान्तवाद का जो खण्डन किया था उसका समर्पक उत्तर देने के ही लिये रचा गया था। ताकिकचक्रचूडामणि आचार्य धर्मकीर्ति की प्रखर प्रतिभा और प्राञ्जल लेखनी ने भारत के तत्कालीन सभी दर्शनों के साथ जैन धर्म के ऊपर भी प्रचण्ड आक्रमण किया था। इस लिये हरिभद्र ने, जहाँ कहीं थोड़ा सा भी मौका मिल गया वहीं पर धर्मकीर्ति के भिन्न-भिन्न विचारों की सौम्यभावपूर्वक परंतु मर्मान्तक रीति से चिकित्सा कर जैन धर्म पर किये गये उनके आक्रमणों का सूद सहित बदला चुकवा लेने की सफल चेष्टा की है। हरिभद्र ने धर्मकीर्ति का विशेष कर 'न्यायवादी' के पाण्डित्यप्रदर्शक विशेषण से उल्लेख किया है और कहीं-कहीं पर उनके बनाए हुए हेतुबिन्दु' और 'वार्तिक' आदि ग्रंथों का भी नाम स्मरण किया है । यथा(१) उक्तं च धर्मकीर्तिना 'न तत्र किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवल' मिति वार्तिके।
(अनेकां० यशोविजय, जैन ग्रंथ माला, पृ० ९०) (२) आह च न्यायवादी (धर्मकीर्तिर्वातिके)-1
न प्रत्यक्षं कस्यचित् निश्चायक, तद् यमपि गृह्णाति तन्न निश्चयेन, किं तहि ? तत्प्रतिभासेन । (पृ० १७७.)
यदाह न्यायवादी (धर्मकीर्तिर्वातिके)(३) 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति ।
प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नाम संश्रयः ॥ संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साऽक्षजा मतिः ॥ पुनर्विकल्पयन् किञ्चिदासीद् मे कल्पनेदृशी।
इति वेत्ति न पर्वोक्तावस्थायामिन्द्रियाद् गतौ ॥ इत्यादि, तदपाकृतमवसेयम् । (पृष्ठ २०७) । १. कोश में लिखा हुआ पाठ टीका में उपलब्ध है ।
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