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( ५३ ) शताब्दी के उत्तरार्द्ध के मध्य-भाग में ई० स० ७७८ में समाप्त होने वाली कुवलयमालाकथा में पूर्वोक्त उल्लेखानुसार स्पष्ट रूप से हरिभद्र का नाम स्मरण किया हुआ विद्यमान है। ऐसी दशा में उल्लिखित कुमारिल-समय और यह हरिभद्र-समय दोनों एक ही हो जाते हैं। अतएव इन दोनों आचार्यों को समकालीन मान लेने के सिवा दूसरा कोई मत दिखाई नहीं देता। ___ इस मत की पुष्टि में अन्य प्रमाण भी यथेष्ट उपलब्ध होते हैं, जो इस प्रकार है
हरिभद्र के ग्रंथों में जिन-जिन बौद्ध विद्वानों के नाम मिलते हैं उनकी सूची ऊपर दी गई है। इन विद्वानों में से आचार्य वसुबन्धु और महामति दिङनाग तो प्राकृत गाथा में उल्लिखित हरिभद्र के मत्यू-समय से निर्विवाद रीति से पूर्वकाल में ही हो चुके हैं, इस लिये उनके जिक्र का तो यहाँ पर कोई अपेक्षा नहीं है, परन्तु धर्मपाल, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर और शांतरक्षित आदि विद्वान् गाथोक्त हरिभद्र के मृत्यु समय से अर्वाचीन काल में हुए हैं। ऐसा ऐतिहासिकों का बहुमत है। इस लिये हरिभद्र का समय भी गाथोक्त समय से अवश्य अर्वाचीन मानना पड़ेगा। यहाँ पर हम हरिभद्र के ग्रंथों में से कुछ अवतरणों को उद्ध त कर देते हैं जिनमें धर्मपालादि बौद्ध विद्वानों का जिक्र पाया जाता है। फिर उनके समय का विचार करेंगे।
अनेकान्तजयपताका के चतुर्थ परिच्छेद में, जहाँ पर पदार्थों में अनेक धर्मों के अस्तित्व का स्थापन किया गया है, वहाँ पर एक प्रतिपक्षी बौद्ध के मुख से निम्नलिखित पंक्तियों का उच्चारण ग्रंथकार ने करवाया है_ 'स्यादेतत्सिद्धसाधनम्, एतदुक्तमेव नः पूर्वाचार्यै द्विविधा हि रूपादीनां शक्तिः-सामान्या प्रतिनियता च । तत्र सामान्या यथा घटसन्निवेशिनामुदकाद्याहरणादिकार्यकरणशक्तिः । प्रतिनियता यथा चक्षुर्विज्ञानादिकार्यकरणशक्तिरिति ।'
(अनेकान्तजयपताका, अहमदाबाद, पृ० ५०) इस अवतरण के पूर्व भाग में 'नः पूर्वाचार्यैः-' यह वाक्यांश है, इसकी स्फुट व्याख्या स्वयं ग्रंथकार ने इस प्रकार की है--
___ 'नः-अस्माकंपूर्वाचार्यैः-धर्मपाल-धर्मकीर्त्यादिभिः ।'
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