Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ ( ५१ ) अत एव श्लोकस्योत्तरार्द्धं वक्तव्यम् - 'तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति श्रोत्रेन्द्रियादृते ।' तत्र कश्विद्विप्रतिपद्यते बधिरेष्वेवमदृष्टत्वात् । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो० के० बी० पाठक ने अपने भर्तृहरि और कुमारिल" नामक निबन्ध में इस पर लिखे गये प्रमाणाधार से निर्णीत किया है कि कुमारिल ई० स० की ८ वीं शताब्दी के पूर्व भाग में हुए होंगे। प्रो० पाठक लिखते हैं कि - "मेरे विचार से यह तो स्पष्ट है कि कुमारिल के समय में व्याकरण शास्त्र के ज्ञाताओं में भर्तृ - हरि भी एक विशिष्ट प्रमाणभूत विद्वान् माने जाते थे । भर्तृहरि अपने जीवन काल में तो इतने प्रसिद्ध हुए ही नहीं होंगे कि जिससे पाणिनिसंप्रदाय के अनुयायी, उन्हें अपने संप्रदाय का एक आप्त पुरुष समझने लगे हों और अतएव पाणिनि और पतंजलि के साथ वे भी महान् मीमांसक की समालोचना के निशान बने हों । इसी कारण से लेनसांग, जिसने ई० स० ६२९-६४५ के बीच भारत भ्रमण किया था, उसने इनका नाम तक नहीं लिखा, परंतु इत्सिन, जिसने उक्त समय से आधी शताब्दी बाद अपना प्रवास - वृत्त लिखा है, वह लिखता है कि भारत वर्ष के पांचों खण्डों में भर्तृहरि एक प्रख्यात वैयाकरण के रूप में प्रसिद्ध हैं । इस विवेचन से हम ऐसा निर्णय कर सकते हैं कि जिस बर्ष तन्त्रवार्तिक की रचना हुई उसके और भर्तृहरि के मृत्यु वाले ई० स० ६५० के बीच में आधी शताब्दी बीत चुकी होगी । अतएव कुमारिल ई० स० की ८ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विद्यमान होने चाहिए ।" हरिभद्र ने अपने अनेक ग्रन्थों में मीमांसा दर्शन की आलोचनाप्रत्यालोचना की है । शास्त्रवार्तासमुच्चय के १० वें प्रकरण में मीमांसक प्रतिपादित 'सर्वज्ञनिषेध' पर विचार किया गया है । उसमें पूर्व पक्ष में कुमारिल भट्ट के मीमांसा - श्लोकवार्तिक के [ 'प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता' ।।' १. जर्नल आव दि बाम्बे ब्रांच रायल एसियाटिक सोसायटी, जिल्द १८, पृ. २१३-२३८ । २. मीमांसा श्लोकवार्तिक, पृष्ठ ४७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80