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श्लोक की संख्या वाले वाक्यपदीय नामक ग्रंथ की रचना की है । वाक्यपदीय का जिक्र करके उस प्रवासी ने यह भी लिखा है कि इसके कर्ता की ई० सं० ६५० में मृत्यु हो गई है । इत्सिन के इस उल्लेख के विरुद्ध में आज तक कोई विशेष प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ; इसलिये इसे सत्य मान लेने में कोई बाधा नहीं है ।
महान् मीमांसक कुमारिल ने 'तंत्रवार्तिक' के प्रथम प्रकरण में शब्द शास्त्रियों की आलोचना है । उसमें पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि के साथ भर्तृहरि के ऊपर भी आक्षेप किये गये हैं । 'वाक्यपदीय' में से अनेक श्लोकों को उद्धत कर उनकी तीक्ष्ण समालोचना की है । उदाहरण के लिये 'वाक्यपदीय' और 'तन्त्रवार्तिक' में से निम्नलिखित स्थल ले लिये जाँय ।
वाक्यपदीय के (पृ० १३२) दूसरे प्रकरण में १२१ वां श्लोक इस प्रकार है
:
अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्व देवतास्वगैः सममा हुर्गवादिषु ॥
कुमारिल भट्ट ने तन्त्रवार्तिक में इस श्लोक को दो जगह (बनारस की आवृत्ति पृ० २५१ - २५४) उद्धृत किया है । यथा
'यथाहु:
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'अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवतास्वर्गेः सममाहुर्गवादिषु ॥' इति । यत्तु अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुः ।' इति, तत्राभिधीयते ।
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वाक्यपदीय के प्रथम प्रकरण में के ७ वें श्लोक का उत्तरार्द्ध, तंत्रवार्तिक (पृष्ठ २०९-१० ) में कुमारिल ने उद्धृत किया है और उसमें शब्द परावर्तन कर भर्तृहरि के विचार का अवस्कन्दन किया हैयदपि केनचिदुक्तम्
तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते ।' इति तद्रूपरसगन्धस्पर्शेष्वपि वक्तव्यमासीत् । को हि प्रत्यक्षगम्यार्थे शास्त्रातत्त्वावधारणम् । शास्त्रलोकस्वभावज्ञ ईदृशं वक्तुमर्हति ? ॥
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