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पाठक यहाँ पर हमसे भी इसी तरह का उलटा प्रश्न यह कर सकते हैं कि जब हमारे विचार से हरिभद्र सिद्धर्षि के साक्षात् या वास्तविक गुरु नहीं थे तो फिर स्वयं उन्होंने
'आचार्य हरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः ।'
ऐसा उल्लेख क्यों किया ? इस उल्लेख का क्या मतलब है ?
इस प्रश्न का यद्यपि हमको भी अभी तक यथार्थं समाधान नहीं हुआ है, तथापि इतनी बात तो हमें निश्चित रूप से प्रतीत होती है कि हरिभद्र का सिद्धर्षि को कभी साक्षात्कार नहीं हुआ था । प्रमाण में, प्रथम तो सिद्धर्षि का ही उल्लेख ले लिया जाय । उपमि० की प्रशस्ति में हरिभद्र की प्रशंसा वाले जो तीन श्लोक हम पहले लिख आये हैं उनमें तीसरा' श्लोक विचारणीय है । इस श्लोक में सिद्धर्षि 'अनागतं परिज्ञाय' ऐसा वाक्य प्रयोग करते हैं । 'अनागतं' शब्द का यहाँ पर दो तरह से अर्थ लिया जा सकता है – एक तो, यह शब्द सिद्धर्षि का विश्लेषण हो सकता है और इसका विशेष्य मां (मुझको)
१. वास्तव में यह श्लोक दूसरा होना चाहिए और जो दूसरा है वह तीसरा होना चाहिए । क्योंकि इस श्लोक का अन्वयार्थ पहले श्लोक के साथ सम्बन्ध रखता है । प्रभावकचरित में इसी क्रम से वे श्लोक लिखे हुए भी उपलब्ध हैं । (द्रष्टव्य, पृ० २०४ )
२. मुनि धनविजयजी ने चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार में 'अनागत' शब्द का प्रसिद्ध अर्थ जो 'भविष्यत् ' वाचक है उसे छोड़कर और कई प्रकार के विलक्षण अर्थ किये हैं और उनके द्वारा सिद्धर्षि का हरिभद्रसूरि के समान काल में होना सिद्ध किया है । धनविजयजी के ये विलक्षण कार्य इस प्रकार हैं: - 'अनागत' याने बौद्ध में से मुझको (सिद्धर्षि को ) नहीं आया हुआ जान कर; अथवा 'अनागत' याने जैनमत से अज्ञात मान कर; तथा 'अनागत' याने भविष्य में मैं बौद्धपरिभावितमति हो जाऊँगा, ऐसा जान कर पुन: 'अनागत' याने आगमनकर्ताका भिन्नत्व ( ? ) जानकर - अर्थात् २२ वीं बार बौद्धधर्म में से मुझे नहीं आता जानकर; फिर 'अनागत' याने सम्पूर्णबोध को प्राप्त हुआ न जानकर ; चैतन्यवन्दन का आश्रय लेकर, श्री हरिभद्रसूरि ने मेरे प्रतिबोध के लिये ललितविस्तरावृत्ति बनाई । इस तरह का 'अनागत' परिज्ञात इस श्लोक का अर्थ संभवित लगता है [!] ।'
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