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उपर्युक्त कथनानुसार सिद्धर्षि हरिभद्रसूरि की अपेक्षा से अनागत याने भविष्यकालवर्ती थे, यह बात निश्चित सिद्ध होती है । इसी बात का विशिष्ट उल्लेख उन्होंने, उपमिति के प्रथम प्रस्ताव में और भी स्पष्ट रूप से कर दिया है। इस प्रस्ताव में सिद्धर्षि ने निष्पुण्यक भिखारी के राजमन्दिर के चौक में प्रविष्ट होने पर उस पर महाराज की दयार्द्र दृष्टि के पड़ने और उस दृष्टिपात को देखकर महाराज की पाकशाला के धर्मबोधकर नामक अधिकारी के मनमें, उसके कारण को विचारने का, जो रूपकात्मक वर्णन दिया है उस वर्णन को फिर अपने अन्तरंग जीवन के ऊपर घटाते हुए तथा रूपक का अर्थ स्फुट करते हुए उन्होंने लिखा है कि
'यथा च तां महाराजदृष्टि तत्र रोरे निपतन्तीं धर्मबोधकराभिधानो महानस नियुक्तो निरीक्षितवानित्युक्तम्, तथा परमेश्वरावलोकनां मज्जीवे भवतीं धर्मबोधकरणशीलो 'धर्मबोधकरः' इति यथार्थाभिधानो मन्मार्गोपदेशक : ' सूरिः स निरीक्षते स्म ।
- ( उपमिति०, पृ० ८० )
अर्थात् --- 'पहले जो भोजनशाला के अधिकारी धर्मबोधकर ने उस भिखारी पर पड़ती हुई महाराज की दृष्टि देखी' ऐसा कहा गया है, उसका भावार्थ 'धर्म का बोध (उपदेश ) करने में तत्पर होने के कारण धर्मबोधकर' के यथार्थ नाम को धारण करने वाले ऐसे जो मेरे मार्गोपदेशक सूरि हैं, उन्होंने मेरे जीवन पर पड़ती हुई परमेश्वर की अवलोकना (ज्ञानदृष्टि ) को देखी, ऐसा समझना चाहिए ।'
इस रूपक को अपने जीवन पर इस प्रकार उपमित करते हुए सिद्धर्षि के मन में यह स्वाभाविक शंका उत्पन्न हुई होगी कि रूपक में जो धर्मबोधकरका, भिखारी पर पड़ती हुई दृष्टि के देखने का वर्णन दिया गया है वह तो साक्षात् रूप में है । अर्थात्, जब भिखारी पर महाराज की दृष्टि पड़ती थी तब धर्मबोधकर ( पाकशालाधिपति) वहां पर प्रत्यक्ष रूप से हाजिर था । परन्तु इस उपमितार्थ में तो यह बात पूर्ण रूप से घट नहीं सकती। क्योंकि परमेश्वर तो सर्वज्ञ होने से उनकी दृष्टि का पड़ना तो मेरे ऊपर वर्तमान में भी सुघटित है, परन्तु जिनको मैंने अपना धर्मबोधकर गुरु माना है वे (हरिभद्र ) सूरि तो मेरे इस वर्तमान जीवन में विद्यमान हैं ही नहीं और न वे परमेश्वर
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