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( ४० ) की तरह सर्वज्ञ ही माने जा सकते हैं, इसलिये इस उपमान की अर्थसंगति कैसे लगाई जाय । [ पाठक यहाँ पर यह बात ध्यान में रक्खें कि सिद्धर्षि ने इन सारे प्रसंग में धर्मबोधकर गुरु का वर्णन दिया है वह हरिभद्रसरि को ही लक्ष्य कर है। क्योंकि प्रशस्ति में यह बात खास तौर से, उन्होंने लिख दी है । द्रष्टव्य ऊपर पृष्ठ २९ पर, हरिभद्र की प्रशंसा में लिखे गये तीन श्लोकों में पहला श्लोक ।] . __इस शङ्का का उन्मूलन करने के लिये और प्रकृत उपमान की अर्थ सङ्गति लगाने के लिये उस क्रान्तदर्शी महर्षि ने अपने अनुपम प्रातिभ कौशल से निम्नलिखित कल्पना का निर्माण कर अपूर्व बुद्धि-चातुर्य बतलाया है । वे लिखते हैं कि___'सध्यानबलेन विमलीभूतात्मानः परहितैकनिरतचित्ता भगवन्तो ये योगिनः पशन्त्येव देशकालव्यवहितानामपि जन्तूनां छद्मस्थावस्थायामपि वर्तमाना दत्तोपयोगा भगवदवलोकनाया योग्यताम् । पुरोवर्तिनां पुनः प्राणिनां भगवदागमपरिमितमतयोऽपि योग्यतां लक्षयन्ति, तिष्ठन्तु विशिष्टज्ञाना इति । ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञाना एव, यतः कालव्यवहितैरनागतमेव तैतिः समस्तोऽपि मदीयो वृत्तान्तः । स्वसंवेदनसिद्धमेतदस्माकमिति ।
उप० पृ० ८०। अर्थात्-'सध्यान के बल से जिनकी आत्मा निर्मल हो गयी है और जो परहित में सदा तत्पर रहते हैं ऐसे योगी महात्मा, छद्मस्था. वस्था याने असर्वज्ञदशा में भी विद्यमान होकर, अपने उपयोग (ज्ञान) द्वारा, देशान्तर और कालांतर में होने वाले प्राणियों की, भगवान के दृष्टिपात के योग्य ऐसी, योग्यता को जान लेते हैं तथा इसी तरह जिनकी मति भगवान के आगमों के अध्ययन से विशुद्ध हो गई है वैसे आगमाभ्यासी पुरुष भी इस प्रकार की योग्यता को जान सकते हैं तो फिर विशिष्टज्ञानियों (श्रुतज्ञानियों) की तो बात ही क्या है ? और जो मुझको सदुपदेश देने वाले आचार्य महाराज हैं तो वे विशिष्टज्ञानी ही हैं । इसलिये 'काल से व्यवहित' याने कालांतर में (पूर्वकाल में) होने पर भी, उन्होंने 'अनागत, याने भविष्यकाल में होने वाला मेरा समग्र वृत्तांत जान लिया था। यह बात हमारी स्वसंवेदन (स्वानुभव) सिद्ध है।'
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