Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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[टिप्पणी-यह कथा प्राकृत साहित्य में एक अमूल्य रत्न-समान है। यह ग्रन्थ अब सिंघी जैन ग्रन्थ माला से प्रकाशित हो चुका है । इसकी एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति, डेकन कालेज में है। यह कथा चम्पू के ढंग पर बनी हुई है। इसकी रचनाशैली बाण की हर्षाख्यायिका या त्रिविक्रम की नलचम्पू जैसी है। काव्य-चमत्कृति उत्तम प्रकार की और भाषा बहुत मनोरम है । प्राकृतभाषा के अभ्यासियों के लिये यह एक अनपम ग्रन्थ है। इस कथा में कवि ने कौतुक और विनोद के वशीभूत होकर मख्य प्राकृत भाषा के सिवा अपभ्रश और पैशाची भाषामें भी कितने वर्णन लिखे हैं, जिनकी उपयोगिता भाषाशास्त्रियों की दष्टि से और भी अत्यधिक है। अपभ्रंश भाषा में लिखे गए इतने प्राचीन वर्णन अभी तक अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त हुए हैं । इसलिये, इस दृष्टि से विद्वानों के लिये यह एक बहुत महत्त्व की चीज है । सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्रसूरि के गुरुवर श्री देवचन्द्रसूरि ने 'संतिनाह चरियं' के उपोद्घात में, पूर्व कवियों और उनके उत्तम ग्रन्थों की प्रशंसा करते हुए इस कथा के कर्ता की भी इस प्रकार प्रशंसा की है
दक्खिन्नइंदसूरि नमामि वरवण्णभासिया सगुणा ।
कुवलयमाल व्व महा कुवलयमाला कहा जस्स ।। इस कथा का संक्षिप्त संस्कृत रूपान्तर १४वीं शताब्दी में होनेवाले रत्नप्रभसूरि नाम के एक विद्वान् ने किया है जिसे भावनगर की जैन आत्मानन्द सभा ने प्रकाशित किया है।
इस कथा और इसके कर्ता का उल्लेख प्रभावकचरित के सिद्धर्षि प्रवन्ध में आया है। वहां पर ऐसा वर्णन लिखा है कि-'दाक्षिण्यचन्द्र नाम के सिद्धर्षि के एक गुरु भ्राता थे। उन्होंने शृगाररस से भरी हुई ऐसी कुवलयमालाकथा बनाई थी। सिद्धर्षि ने जब 'उपदेशमाला' नामक ग्रन्थ पर बालावबोधिनीटीका लिखी तब दाक्षिण्यचन्द्रने उनका उपहास करते हुए कहा कि 'पुराने ग्रन्थों के अक्षरों को कुछ उलटा-पुलटा कर नया ग्रंथ बनाने में क्या महत्त्व है ? शास्त्र तो 'समरादित्यचरित' जैसा कहा जा सकता है जिसके पढ़ने से मनुष्य भूख-प्यास के' भी भूल जाते हैं । अथवा मेरी बनाई हुई कुवलयमालाकथा भी कुछ वैसी कही ही जा सकती है जिसके वाचने से मनुष्य को उत्तरोत्तर रसाह्लाद आता रहता है। तुम्हारी रचना तो लेखक
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