Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 46
________________ ( ४१ ) इस उल्लेख पर किसी प्रकार की टीका की जरूरत नहीं है। स्पष्ट रूप से सिर्षि कहते हैं कि मुझसे कालव्यवहित अर्थात् पूर्वकाल में हो जानेवाले धर्मबोधकर सरि (जो स्वयं हरिभद्र ही हैं) ने जो अनागत याने भविष्यकाल में होनेवाला मेरा समग्र वृत्तान्त जान लिया था उसका कारण यह है कि वे विशिष्टज्ञानी थे। हरिभद्रसूरि सचमुच ही सिद्धर्षि के जीवन के बारे में कोई भविष्यलेख लिख गये थे या कथागत उपमितार्थ की संगति के लिये सिद्धर्षि की यह स्वोद्भावित कल्पना मात्र है, इस बात के विचारने की यहाँ पर कोई आवश्यकता नहीं है । यहां पर इस उल्लेख की उपयोगिता इसी दृष्टि से है कि इसके द्वारा हम यह स्पष्ट जान सके हैं कि हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के समकालीन नहीं हैं किन्तु पूर्वकालीन हैं। इस प्रकार सिद्धर्षि के निज के उल्लेख से तो हरिभद्रसूरि को पूर्वकालीनता सिद्ध होती ही है, परन्तु इस पूर्वकालीनता का विशेष साधक और अधिक स्पष्ट प्रमाण प्राकृत साहित्य के मुकुटमणिसमान 'कुवलयमाला' नामक कथाग्रन्थ में भी मिलता है। यह कथा दाक्षिण्यचिह्न के उपनाम वाले उद्योतनसरि ने बनाई है। इसकी रचना-समाप्ति शक संवत् सात सौ के समाप्त होने में जब एक दिन न्यून था तब –अर्थात् शक संवत् ६९९ के चैत्रकृष्ण १४ के दिन' - हुई थी। यह उल्लेख कर्ता ने, स्वयं प्रशस्ति में निम्न प्रकार से किया है--- ... अह चोदसीए चित्तस्स किण्हपक्खम्मि । निम्मविया बोहकरी भव्वाणं होउ सव्वाणं ।' 'सगकाले बोलीणे वरिसाण सएहिं सत्तहिं गएहिं । एगदिणे णूणेहिं एस समत्ता वरण्हम्मि ॥' १. राजपूताना और उत्तर भारत में पूणिमान्त मास माना जाता है। इस लिये यहां पर इसी पूणिमान्त मास की अपेक्षा से चैत्र कृष्ण का उल्लेख हुआ है । दक्षिण भारत की अपेक्षा से फाल्गुन कृष्ण समझना चाहिए। क्योंकि वहां पर अमान्त मास प्रचलित है। गुजरात में भी यही अमान्त मास प्रचलित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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