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इस प्रकार हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के समकालीन नहीं थे, इस बात का समाधान तो हो चुका है। अब यहाँ पर, यह दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है कि, जब हरिभद्र इस प्रकार सिद्धर्षि के समकालीन नहीं माने जा सकते, तब फिर पूर्वोक्त गाथा के कथानुसार उन्हें विक्रम की छठीं शता दी में मान लेने में क्या आपत्ति है ? क्योंकि उस समय का बाधक मुख्य कर जो सिद्धर्षि का उल्लेख समझा जाता है वह तो उपयुक्त रीति से निर्मूल सिद्ध होता है । __ इस प्रश्न के समाधान के लिये विशेष गवेषणा की जरूरत होने से, जब हमने हरिभद्र के प्रसिद्ध सब उपलब्ध ग्रंथों का, इस दष्टि से, ध्यानपर्वक निरीक्षण किया, तो उनमें अनेक ऐसे स्पष्ट प्रमाण मिल आये कि जिनकी ऐतिहासिक पर्वापरता का विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि 'गाथा' में बताये अनुसार हरिभद्र का स्वर्गगमन वि. सं० ५८५ में एवं छठी शताब्दी में उनका होना सत्य नहीं माना जा सकता।
जैसा कि हम प्रारम्भ ही में सूचित कर आये हैं हरिभद्रसूरि ने अपने दार्शनिक और तात्त्विक ग्रंथों में कितने एक ब्राह्मण, बौद्ध आदि दार्शनिक विद्वानों के नामोल्लेख पूर्वक-विचारों और सिद्धान्तों की आलोचना-प्रत्यालोचना की है। इस कारण से उन-उन विद्वानों के सत्ता-समय का विचार करने से हरिभद्र के समय का भी ठीक-ठीक विचार और निर्णय किया जा सकता है । अतः अब हम इसी बात का विचार करना शुरू करते हैं।
हरिभद्रसूरि के ग्रंथों में मुख्य कर निम्नलिखित दार्शनिकों और शास्त्रकारों के नाम मिल जाते हैं :--
ब्राह्मणअवधूताचार्य
आसुरि ईश्वर कृष्ण
कुमारिल-मीमांसक
१. इन ग्रन्थकारों के नामों के अलावा कितने ही सम्प्रदायों, सांप्रदायिकों और तैथिकों के उल्लेख भी इनके ग्रंथों में यत्र-तत्र मिलते हैं परन्तु उनके उल्लेखों से प्रकृत विचारमें कोई विशेष सहायता न मिलने के कारण यहां पर वे नहीं दिये गये हैं।
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