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और उनके प्रणेता कूतैर्थिक, मुग्ध जन को किस प्रकार भ्रान्त करते हैं और तत्त्वाभिमुखता से किस प्रकार पराङ्मुख बनाते हैं, उसका उल्लेख आया है (द्रष्टव्य उप० पृ० ४६); तथापि वह सर्वसाधारण और निष्पु. ण्यक की भगवद्धर्म प्राप्ति के पूर्व का वर्णन होने से उस पर से सिद्धर्षि के प्रावादिक धर्मभ्रंश का कुछ भी सूचन नहीं होता। अतः इस बात का हम कुछ निर्णय नहीं कर सके कि ललितविस्तरा वत्ति का स्मरण सिद्धर्षि ने क्यों किया है। हां, इतनी बात तो जानी जाती है कि यह वृत्ति उन्हें अभ्यस्त अवश्य थी और इस पर उनकी भक्ति थी। क्यों कि इस वृत्ति की वाक्य शैली का उन्होंने अपने महान् ग्रन्थ में उत्तम अनुकरण किया है, मात्र इतना ही नहीं है परत इसमें जितने उत्तम उत्तम धार्मिक भावना वाले वाक्य हैं वे सब एक दूसरी जगह ज्यों के त्यों अन्तहित भी कर लिये हैं। उदाहरण के लिये चतुर्थ प्रस्ताव में जहां पर नरवाहन राजा विचक्षण नाम के सूरि के पास जा कर बैठता है, तब सूरि ने जो उपदेशात्मक वाक्य उसे कहे हैं वे सब सिद्धर्षि ने ललितविस्तरा में से ही ज्यों के त्यों उद्ध त किये हैं (द्रष्टव्य, उपमि. पृ. ४७७, और ललित० पृ. ४६-७)। इसी तरह सातवें प्रस्ताव में भी एक-जगह बहुत सा उपदेशात्मक अवतरण यथावत् उद्ध त (अन्तहित) किया हुआ है (उपमि. पृ. १०९२ और ललित पृ. १६६) । इससे यह निश्चित ज्ञात होता है कि सिद्धर्षि को यह ग्रन्थ बहुत प्रिय था और इस प्रियता में कारणभूत, किसी प्रकार का इस ग्रन्थ का, उनके ऊपर विशिष्ट उपकारकत्व ही होगा। बिना ऐसे विशिष्ट उपकारकत्व के उक्त रीति से, इस ग्रन्थ का सिर्षि द्वारा बहुमान किया जाना संभवित और संगत नहीं लगता। जिस ग्रन्थ के अध्ययन वा मनन से अपनी आत्मा उपकृत होती हो, उस ग्रन्थ के प्रणेता महानुभाव को भी अपना उपकारी मानना-समझना और तदर्थ उसको नमस्कारादि करना, यह एक कृतज्ञ और सज्जन का प्रसिद्ध लक्षण है और वह सर्वानुभव सिद्ध ही है । अतः हरिभद्र के समकालीन न होने पर भी सिद्धषि का, उनको गुरुतया पूज्य मानकर नमस्कारादि करना और उन्हें अपना परमोपकारी बतलाना तथा उनकी बनाई हुई ललितविस्तरावृत्ति के लिये 'मदर्थेव कृता-मानों मेरे लिये की गई, भावनात्मक कल्पना करना सर्वथा युक्तिसंगत है। .
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