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अपनी इस जांच परिणामों में हमें जो-जो नये प्रमाण मिले हैं उनको क्रमशः उल्लिखित करने और उन प्रमाणों के आधार पर जो सिद्धान्त हमने स्थिर किया है उसका विस्तृत स्वरूप बतलाने के पहले, पाठकोंके ज्ञानसौकर्यार्थ, अपने निर्णयका सारांश हम प्रथम यहीं पर कह देते हैं कि, हमारे शोध के अनुसार हरिभद्रसूरि न तो उक्त प्राकृत गाथा आदि लेखों के अनुसार छठी शताब्दी में विद्यमान थे और न डॉ. जेकोबी आदि लेखकों के कथनानुसार सिद्धर्षि के समान १०वीं शताब्दी में मौजूद थे। अपितु श्रमण भगवान् श्री महावीरदेव प्ररूपित आर्हत दर्शन के अजरामर सिद्धान्त स्वरूप 'अनेकान्तवाद' की 'जयपताका' को भारतवर्ष के आध्यात्मिक आकाश में उन्नत उन्नततर रूपसे उड़ाने वाले ये 'श्वेतभिक्ष' महात्मा अपने उज्ज्वल और आदर्श जीवन से आठवीं शताब्दी के सौभाग्य को अलंकृत करते थे।
अपने इस निर्णय को प्रमाणित करने के लिये हमें केवल दो ही बातों का समाधान करना होगा। एक तो सिद्धर्षि ने हरिभद्रसूरि को अपना धर्मबोधकर गुरु बतलाया है, उसका क्या तात्पर्य है, इस बात का और दूसरा प्राकृत गाथा में और उसके अनुसार अन्यान्य पूर्वोक्त ग्रंथों में हरिभद्र का स्वर्गगमन जो विक्रम संवत के ५८५वे वर्ष में लिखा है उसका स्वीकार क्यों नहीं किया जाता, इस बात का । इसमें पहली बात का-सिद्धर्षि के लिखे हुए हरिभद्रपरक गुरुत्व का समाधान इस प्रकार है
उपमितिभवप्रपञ्चकथा में लिखे हुए सिद्धर्षि के एतद्विषयक वाक्यों का सूक्ष्मबुद्धिपूर्वक विचार किया जाय और उनका पूर्वापर सम्बन्ध लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि, सिद्धर्षि हरिभद्र को अपना साक्षात् (प्रत्यक्ष) गुरु नहीं मानते परन्तु परोक्षगुरु अर्थात् आरोपित. रूप से गुरु मानते हैं। उपमि० की प्रशस्ति में उन्होंने जो अपनी गुरुपरम्परा दी है, उसका यहाँ विचार करना हमारा कर्तव्य है। इस प्रशस्ति के पाठ से स्पष्ट ज्ञात होता है कि सिद्धर्षि के दीक्षाप्रदायक गुरु गर्गर्षि थे-अर्थात् उन्होंने गर्गर्षि के हाथ से दीक्षा ली थी। प्रशस्ति के सातवें पद्य में यह बात स्पष्ट लिखी हुई है । यथा
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