Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 36
________________ ( ३१ ) जो उनको अपना गुरु बतलाते हैं वह है, और दूसरा यह है कि हरिभद्रके निजके ग्रन्थों में ऐसे ग्रंथकारोंका उल्लेख अथवा सूचन है, जो विक्रमीय छठी शताब्दी के बाद हुए हैं । इसलिये उनका उतने पुराने समय में होना दोनों तरह से असंगत है। टिप्पणी--मुनि धनविजयजी ने चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धार नामक पुस्तक में हरिभद्र और सिद्धर्षि के समकालीन होने में कुछ दो-एक और दूसरे प्रमाण दिये हैं जिन्हें भी संग्रह की दृष्टि से यहाँ तक लिख देते हैं । उन्होंने एक प्रमाण खरतरगच्छीय रंगविजय लिखित पट्टावली का दिया है । इस पट्टावली में वि. सं. १०८० में होनेवाले जिनेश्वरसूरि से पूर्व के चौथे पट्ट पर हरिभद्रसूरि हए, ऐसा उल्लेख है। अर्थात् जिनेश्वरसूरि ३३ दें पट्टधर थे और हरिभद्रसूरि २९ वें पट्टधर । इस उल्लेखानुसार, मुनि धनविजयजी का कहना है कि १०८० में से ४ पट्ट के २५० वर्ष निकाल देने से शेष ८३० वर्ष रहते हैं, तो ऐसे समय में हरिभद्रसूरि हुए होंगे । (जब इस उल्लेख के आधार पर हरिभद्र को सिद्धर्षि के समकालीन सिद्ध करना है तो फिर ४ पट्ट के २५० वर्ष जितने अव्यवहार्थ संख्यावाले वर्ष के निकालने की क्या जरूरत है । ऐतिहासिक विद्वान् सामान्य रीति से एक मनुष्य के व्यावहारिक जीवन के २० वर्ष गिनते हैं और इस प्रकार एक शताब्दी में पांच पुरुष-परम्परा के हो जाने का साधारण सिद्धान्त स्वीकार करते हैं । इस लिये ४ पट्ट के ज्यादा से ज्यादा सो सवा सौ वर्ष बाद कर, हरिभद्र को सीधे सिद्धर्षि के समकालीन मान लेने में अधिक युक्तिसंगतता है।) दूसरा प्रमाण धनविजयजी ने यह दिया है कि रत्नसंचयप्रकरण में, निम्नलिखित गाथार्ध में हरिभद्र का समय वीर संवत् १२५५ लिखा है। यथा 'पणपण्णबारससए हरिभद्दो सूरि आसि पुवकए' इस गाथा के 'भावार्थ' में लिखा है कि-'वीरथी बारसे पंचावन वर्षे श्रीहरिभद्रसूरि थया । पूर्वसंघ (?) ना करनार ।' इस पर धनविजयजी अपनी टिप्पणी करते हैं कि, वीर संवत् १२५५ में से ४७० वर्ष निकाल देनेपर विक्रम संवत् ७८५ आते हैं । सम्भव है कि हरिभद्रसूरि का आयुष्य सो वर्ष जितना दीर्घ हो और इस कारण से वे सिद्धषि के, निदान बाल्यावस्थामें, तो समकालीन हो सकते हैं (!)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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