Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 35
________________ ( ३० ) के बारे में भी संवत् लिखने में ग्रंथकारोंको भ्रान्ति हुई है । ५८५ का जो साल है वह वीर या विक्रम संवत् की नहीं है परन्तु गुप्त संवत् की है। गुप्त संवत् ईस्वी सन् ३१९ में शुरू हुआ था। इस हिसाबसे हरिभद्र के स्वर्गगमनकी साल ई. सं. ९०४ आती है; अर्थात् उपमितिभवप्रपञ्चाकी रचनासमाप्तिके • वर्ष पहले आती है । यह कथन सच हो सकता है; परन्त दन्तकथामें प्रचलित वीर संवत् की १०५५ वाली साल ली जाय और भ्रान्ति (भूल) उस मेंसे उत्पन्न हुई है ऐसा माना जाय तो इस दन्तकथावाली सालमें होने वाली भ्रान्तिका खुलासा एक दूसरी तरह से भी किया जा सकता है। अपनी इस कल्पना के पीछे मुझे निम्नलिखित कारण मिलता है । पउमचरियं नामक ग्रंथ के अन्त में, उसके कर्ता विमलसरि कहते हैं कि यह ग्रन्थ उन्होंने वीर निर्वाण बाद ५३० (दूसरी पुस्तक में ५२०) वें वर्ष में बनाया है। ग्रन्थकर्ताके इस कथनको न मानने का कोई कारण नहीं है । परन्तु वह ग्रंथ ईस्वी सन् के चौथे वर्ष में बना था, यह मानना कठिन लगता है। मेरे अभिप्राय के अनु. सार 'पउमचरियं' ईस्वीसन की तीसरी या चौथी शताब्दी में बना हुआ होना चाहिए । चाहे जैसा हो; परन्तु पूर्वकालमें महावीर निर्वाण काल की गणना वर्तमान गणनाकी तरह एक ही प्रकार से नहीं होती थी। ऐसा सन्देह लाने में कारण मिलते हैं; और अगर ऐसा न हो तो भी प्राचीन काल में निर्वाण समयकी गणनामें भूल अवश्य चली आती थी, जो पीछे से सुधार ली गई है।' -डॉ० जेकोबी की उपमि० प्रस्तावना, पृ० ६-१० । ____ डॉ० जैकोबी के इस कथन का सार इतना ही है कि वे हरिभद्र और सिद्धषि-दोनों को समकालीन मानते हैं और उनका समय सिद्धर्षि के लेखानुसार विक्रम की १०वीं शताब्दी स्वीकरणीय बतलाते हैं । हरिभद्र की मृत्यु-संवत् सूचक गाथा में जो ५८५ वर्ष का जिक्र है वह वर्ष विक्रम संवत्सर का नहीं परन्तु गुप्त संवत्सरका समझना चाहिए । गुप्त संवत् और विक्रम संवत्के बीच में ३७६ वर्ष का अन्तर रहता है । इसलिये ५८५ में ३७६ मिलानेसे ९६१ होते हैं । इधर सिद्धर्षि की कथाके ९६२ में समाप्त होने का स्पष्ट उल्लेख है ही अतः वे दोनों बराबर समकालीन सिद्ध हो जाते हैं। हरिभद्र के मृत्यु संवत् ५८५ को विक्रमीय न मानने में मुख्य कारण, एक तो सिद्धर्षि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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