Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 33
________________ ( २८ ) संवत्सर का है । यदि यह वर्ष विक्रम संवत् मान लिया जाय तो उस दिन के विषय में लिखे गये वार आदि सब ठीक मिल जाते हैं । विक्रम संवत् ९६२ के ज्येष्ठ शुक्ल ५ के दिन ईस्वी सन् ९०६ के मई मास की १ तारीख आती है । उस दिन चन्द्रमा सूर्योदय से लेकर मध्याह्नकाल के बाद तक पुनर्वसु नक्षत्र में था, वार भी गुरु ही था । • परंतु इस वर्ष को वीर संवत् मानें तो उस दिन ई० स० ४३६ के मई मास की ७वीं तारीख आती है । वार उस दिन भी गुरु ही आता है, परंतु चन्द्रमा सूर्योदय के समय पुष्य नक्षत्र में रह कर फिर दो घंटे · बाद अश्लेषा नक्षत्र में चला जाता है । इस लिये नक्षत्र बराबर नहीं मिलता । अतः प्रस्तुत संवत् वीरसंवत् नहीं होना चाहिए। दूसरी बात - यह है कि, यदि इसे वीर संवत् माना जाय तो यह विक्रम संवत् ४९२ होता है और इससे तो सिद्धर्षि अपने गुरु हरिभद्र जो दंतकथा के कथनानुसार विक्रम संवत् ५८५ में स्वर्गस्थ हुए. उनसे भी पूर्व में हो जाने वाले सिद्ध होते हैं । इस लिये सिद्धर्षि का संवत् निस्सन्देह विक्रम संवत् ही है और वह ई० स० ९०६ बराबर है । जैन परम्परा प्रचलित दन्तकथा के अनुसार हरिभद्र का मृत्यु समय विक्रम संवत् ५८५ ( ई० सं० ५२९ ) अर्थात् वीर संवत् १०५५ है । यह समय हरिभद्र के ग्रन्थों में लिखी हुई कितनी बातों के साथ सम्बद्ध नहीं होता । षड्दर्शनसमुच्चय नामक ग्रन्थ में हरिभद्र दिङ्नाग शाखा के बौद्धन्यायका संक्षिप्त सार देते हैं, उनमें प्रत्यक्ष की व्याख्या 'प्रत्यक्षं कल्पना पोढमभ्रान्तं' ऐसी दी हुई । यह व्याख्या न्यायबिन्दु के प्रथम परिच्छेद में धर्म कीर्ति की दी हुई व्याख्या के साथ शब्दशः मिलती है । दिङ्नाग की व्याख्या में 'अभ्रान्त' शब्द नहीं मिलता उनकी व्याख्या इस प्रकार है - ' प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम् ।' ( द्रष्टव्य न्यायवार्तिक, पृ० ४४; तात्पर्य टीका, पृ० १०२; तथा सतीशचन्द्र विद्याभूषण लिखित - मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र इतिहास, पृ० ८५, नोट २ ) हरिभद्रसूरि की दी हुई व्याख्या में आवश्यकीय 'अभ्रान्त' शब्दकी वृद्धि हुई, इसलिये जाना जाता है कि उन्होंने धर्मकीर्ति का अनुकरण किया है। धर्मकीर्ति का समय जैन दन्तकथा में बतलाये गये हरिभद्र के मृत्युसमय स० १०० वर्ष पीछे माना जाता है । इसलिये हरिभद्र का यह संवत् सत्य नहीं होना चाहिए । पुनः षड् का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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