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( २६ ) सिद्धर्षि विषयक इन उपर्यत उल्लेखों से पाठक यह जान सकेंगे कि हरिभद्रसूरि और सिद्धर्षि के गुरुशिष्य भाव के सम्बन्ध में और इसी कारण से इन दोनों के सत्ता-समय के विषय में जैन ग्रन्थकारों के परस्पर कितने विरुद्ध विचार उपलब्ध होते हैं । परन्तु आश्चर्य यह है कि इन सब विचारों में भी कोई ऐसा निश्चित और विश्वसनीय विचार हमें नहीं मालूम देता, जिसके द्वारा इस प्रश्न का निराकरण किया जा सके कि हरिभद्र और सिर्षि के बीच के गुरु-शिष्य भाव का क्या अर्थ है ? वे दोनों समकालीन थे या नहीं ? इस लिये अब हमको, इन सब उल्लेखों को यहीं छोड़ कर, खुद सिद्धर्षि और हरिभद्र के ग्रन्थोक्त आन्तर प्रमाणों का ऊहापोह करके तथा अन्य ग्रन्थों में मिलते हुए इसी विषय के संवादी उल्लेखों के पूर्वापर भाव का यथासाधन विचार करके, उनके द्वारा इन दोनों महात्माओं के सम्बन्ध और समय की मीमांसा करने की आवश्यकता है। अन्यथा इस विषय का निराकरण होना अशक्य है । ___इस विषय के विचार के लिये हमने जितने प्रमाण संगृहीत किये हैं उनकी विस्तृत विवेचना करने के पहले, हम यहां पर जैनदर्शनदिवाकर डॉ० हर्मन जेकोबी ने बड़े परिश्रम के साथ, प्रकृत विषय में कितने साधक बाधक प्रमाणों का सूक्ष्मबुद्धि पूर्वक ऊहापोह करके स्वसंपादित उपमितिभवप्रपञ्चा की प्रस्तावना में जो विचार प्रकाशित किये हैं उनका उल्लेख करना मुनासिब समझते हैं ।
__डॉ० साहब अपनी प्रस्तावना में सिद्धर्षि के जीवन चरित्र के बारे में उल्लेख करते हुए, प्रारम्भ में उपमिति० की प्रशस्ति में जो गुरुपरम्परा लिखी हुई है उसका सार देकर हरिभद्र की प्रशंसावाले पद्यों का अनुवाद देते हैं और फिर लिखते हैं कि___"मेरा विश्वास है कि हरिभद्र और सिद्धर्षि विषयक इन उपर्युक्त श्लोकों के पढ़ने से सभी निष्पक्ष पाठकों को निश्चय हो जाएगा कि . इनमें शिष्य ने अपने साक्षात् गुरु का वर्णन किया है परन्तु 'परम्परा गुरु' का नहीं । जिस प्रथम युरोपीय विद्वान् प्रो० ल्युमन ने [ जर्मन ओरिएन्टल सोसायटी का जर्नल, पु० ४३ पृ० ३४८ पर ] इन श्लोकों का अर्थ किया है उनका भी यही मन्तव्य था और हमारे इस अनुमान की, उपमितिभवप्रपंचा के प्रथमः प्रस्ताव में सिद्धर्षि ने जो
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