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( २४ ) (३) पडिवालगच्छीय पट्टावलि के मत से सिद्धर्षि के दीक्षागुरु तो
गर्गस्वामी ही थे। परन्तु हरिभद्रसूरि का समागम भी उनको हुआ था। इस लिए वे दोनों कुछ काल तक सम
कालीन अवश्य थे। सिद्धर्षि के विषय में एक और उल्लेख हमारे देखने में आया है जिसे हम प्रमाण की दृष्टि से नहीं किन्तु विचित्रता की दृष्टि से यहां पर सूचित किये देते हैं। जैन श्वे० कान्फरेन्स हेरल्ड नामक मासिक पत्र के सन् १९१५ के जुलाई-अक्टूबर मास के संयुक्त अंक में, एक गुजराती भाषा में लिखी हुई तपागच्छ की अपूर्ण पट्टावली छपी है। इस पट्टावली में हरिभद्रसूरि का भी वर्णन दिया गया है। इस वर्णन के अंत में लिखा है कि, सिद्धर्षि हरिभद्र के भाणेज (भागिनेय) थे और उन्होंने उपमितिभवप्रपञ्चकथा, श्रीचंद्रकेवलीचरित्र तथा विजयचंद्रकेवलीचरित्र नामक ग्रन्थ बनाये थे (द्रष्टव्य उक्त पत्र, पृ० ३४१)।
प्रभावकचरित में सिद्धर्षि के सम्बन्ध में जो-जो बातें लिखी हैं उनमें दो बातें और भी ऐसी हैं जो उनके समय का विचार करते समय उल्लिखित कर दी जाने योग्य हैं। पहली बात यह है कि सिद्धर्षि को सुप्रसिद्ध संस्कृत महाकाव्य ‘शिशुपाल वध' के कर्ता कवीश्वर माघ का चचेरा भाई (पितृव्यपुत्र) लिखा है और दूसरी बात यह है कि, कुवलयमालाकथा के कर्ता दक्षिण्यचिह्न सूरि को सिद्धर्षि का गुरुभ्राता बतलाया है। परन्तु महाकवि माघ का समय ईस्वी की ७वीं शताब्दी का मध्य भाग निश्चित किया गया है और कुवलयमालाकथा के कर्ता दाक्षिण्यचिह्न सूरि का समय जैसा कि यह ई० स० की ८वीं शताब्दी का अन्तिम भाग निर्णीत है। इस कारण से, जब तक सिद्धर्षि का लिखा हुआ उक्त ९६२ का वर्ष, एक तो प्रक्षिप्त या झूठा
१. द्रष्टव्य, प्रभावकचरित-सिद्धषिप्रबन्ध, श्लोक ३-२० । २. वही ८९ ।
३. द्रष्टव्य, डॉ. जेकोबी की उप० की प्रस्तावना, पृ. १३; तथा, श्रीयुत केशवलाल हर्षधराय ध्रव का गुजराती अमरुशतक, प्रस्तावना, पृ. ९ (४थी आवत्ति)।
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