Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 30
________________ ( २५ ) नहीं सिद्ध होता और दूसरा वह विक्रम संवत् के सिवा और किसी संवत् का साबित नहीं किया जाता, तब तक प्रभावकचरित की ये दोनों बातें कपोलकल्पित ही माननी पड़ेगी । Bulletin de 'l' Acad' emie Imperiale des Sciences de St. — Peters"burg, 19" में सिद्धर्षि पर एक लेख प्रकाशित किया है जिसमें श्री चन्द्रकेवलीचरित नामक ग्रन्थ में निम्नलिखित दो श्लोक उद्धृत किया है .1 3io fazat (Dr. N. Mironov) ० वस्वषु [५९८ ] मिते वर्षे श्रीसिद्धर्षिरिदं महत् । प्राक् प्राकृतचरित्राद्धि चरित्रं संस्कृतं व्यधात् ॥ तस्मान्नानार्थ सन्दोहादुद्धृतेयं कथात्र च । न्यूनाधिकान्यथायुक्त मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे ॥ में, इन श्लोकों का सार मात्र इतना ही है कि - सिद्धर्षिने संवत् ५९८ प्राकृत भाषा में बने हुए पूर्व के श्रीचन्द्र केवलीचरित पर संस्कृत में नया चरित्र बनाया था । सिद्धर्षि अपनी उपमि० कथा के बनने का संवत्सर ९६२ लिखते हैं और इस चरित्र में ५९८ वर्ष का उल्लेख किया हुआ है । इस प्रकार इन दोनों वर्षों के बीच में ३६४ वर्ष का अन्तर रहता है । इस लिये डॉ० मिरोनौका कथन है कि यदि इस ५९८ वें वर्ष को गुप्त संवत् मान लिया जाय तो इस विरोध का सर्वथा परिहार हो जाता है । क्यों कि ५९८ गुप्त संवत् में शामिल कर देने पर विक्रम संवत् ९७४ हो जाता है सिद्धर्षि के उपमि० कथा बाले संवत्सर ९६२ के पहुंचता है। ७६ वर्ष और यह समय समीप में आ इस प्रकार सिद्धर्षि के समयादि के बारे में जितने उल्लेख हमारे देखने में आये हैं उन सब का सार हमने यहां पर दे दिया है । हरिभद्रसूरि के समय विचार के साथ सिद्धर्षि के समय विचार का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से हमें यहां पर इस विषय का इतना विस्तार करने की आवश्यकता पड़ी है । . १. डॉ. जेकोबी ने भी अपनी उप० की प्रस्तावना के अन्त में संक्षिप्त टिप्पण के साथ इन श्लोकों को प्रकट किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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