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सिद्धर्षि के जीवन सम्बन्धी प्रभावकचरित और प्रबन्धकोष के लेखकों के उक्त मतों से कुछ भिन्न एक तीसरा मत भी है जो पडिवालगच्छ की एक प्राकृत पट्टावली में मिलता है । यह पट्टावली कब की बनी हुई है और कैसी विश्वसनीय है; सो तो उसे पूरी देखे बिना नहीं कह सकते। मुनि धनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धार' नामक पुस्तक में, इस पट्टावली में से प्रस्तुत विषय का जो पाठ उद्धृत किया है उसी से हम यहां पर यह तीसरा मत उल्लिखित कर रहे हैं । इस पट्टावली के लेखक के मत से सिद्धर्षि के मूल दीक्षागुरु तो गर्गाचार्य या गर्गमुनि ही थे - हरिभद्र और सिद्धर्षि के गुरुशिष्य भाव के सम्बन्ध में पट्टावलीकार का कथन इस प्रकार है : - पूर्वोक्त कथानुसार, बौद्धसंसर्ग के कारण जब सिद्धर्षि के विचारों में बारंबार परिवर्तन होने लगा तब उनके गुरु गर्गर्षि ने हरिभद्रसूरि को, जो बौद्धमत के बड़े भारी ज्ञाता थे, विज्ञप्ति की कि कोई ऐसा उपाय कीजिए कि जिससे सिद्धर्षि का मन स्वधर्म में स्थिर हो जाय । फिर सिद्धर्षि जब अपने गुरु के पास पुनर्मिलन के लिए आये तब हरिभद्र ने उनको बहुत कुछ समझाया परन्तु वे सन्तुष्ट न हुए और वापस बौद्धमठ में चले गये । इससे फिर हरिभद्र ने तर्कपूर्ण ऐसी ललितविस्तरावृत्ति बनाई। इसके बाद हरिभद्र की मृत्यु हो गयी । मरते समय वे गर्गाचार्य को वह वृत्ति सौंपते गये और कहते गये कि अब जो सिद्धर्षि आवें तो उन्हें यह वृत्ति पढ़ने को देना । गर्गाचार्य बाद में ऐसा ही किया और अन्त में उस वृत्ति के अवलोकन से सिद्धर्षि का मन स्थिर हुआ । इसी लिए उन्होंने हरिभद्र को अपना गुरु माना और उस वृत्ति को ' मदर्थं निर्मिता' बतलाया । '
१. इस पट्टावली में सिद्धर्षि के गुरु गर्गाचार्य और उनके गुरु दुर्गं स्वामी के स्वर्गगमन की साल भी लिखी हुई है । यथा 'अह दुग्गसामी विक्कमओ ९०२ वरिसे देवलोयं गतो । तस्सीसो सिरिसेणो आयरियपठिओ । गग्गायरियावि विक्कमओ ९१२ वरिसे कालं गया तप्पए सिद्धायरिओ । एवं दो आयरिया विहरई ।' अर्थात् दुर्गस्वामी विक्रमसंवत् ९०२ में स्वर्ग गये । उनके शिष्य श्रीषेण आचार्य पद पर बैठे । गर्गाचार्य की भी विक्रम संवत् ९१२ में मृत्यु हुई। उनके पट्ट पर सिद्धर्षि बैठे । इस प्रकार श्रीषेण और सिद्धर्षि दोनों आचार्य एक साथ रहते थे । यदि
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