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( १३ ).
इसी गाथा को प्रद्युम्नसूरि ने अपने 'विचारसारप्रकरण' में और समयसुन्दरगणि ने स्व-संगृहीत 'गाथासहस्री' नामक प्रबन्ध में भी उद्ध त की है। पूनः इसी गाथा के आशय को लेकर कूलमंडनसरि ने 'विचारामतसंग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय ने तपागच्छगुर्वावली में लिखा है कि महावीर निर्वाण के पश्चात् १०५५ वें
१. ये धर्मघोषसूरिके प्रशिष्य एवं देवप्रभ के शिष्य थे । इनका निश्चित समय ज्ञात नहीं है । सम्भव है कि कदाचित् ये मेरुतुंग के पूर्ववर्ती हों और 'विचारश्रेणी' की बहुत सी प्राकृत गाथायें इन्हीं के 'विचारसारप्रकरण' से ली गई हों-यद्यपि इसमें भी वे सब गाथायें संगृहीत मात्र ही हैं, नवीन रचित यहीं । यदि विशेष खोज करने पर, इस संग्रहकार के समय का पता लगा और ये मेरुतुग से पूर्ववर्ती निश्चित हुए, तो फिर हरिभद्र की मृत्युसंवत्सूचक प्राकृत गाथा के प्रथम अवतरण का मान, इन्हीं के इस 'विचारसारप्रकरण' को देना होगा। इस प्रकरण में एक दूसरी बात यह भी है कि प्राक त गाथा के साथ प्रकरणकार ने 'अह वा' (सं. अथ वा) लिख कर एक दूसरी भी प्राकत गाथा लिखी-उद्धत की-है, जिसमें वीर-निर्वाण से १०५५ वर्ष वाद हरिभद्र हुए, ऐसा कथन है । इस गाथा के उद्ध त करने का मतलब लेखक को इतना ही मालूम देता है कि हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास-समय प्रधान गाथा में जो वि. सं. ५८५ बतलाया है वह इस दूसरी गाथा के कथनसे भी समर्थित होता है। क्योंकि ५८५ का विक्रम संवत्सर महावीर संवत् १०५५ के बराबर (४७०+५८५ = १०५५) ही होता है। प्रद्युम्नसूरि संगहीत दूसरी गाथा इस प्रकार है----
पण पन्न-दस-सएहिं हरिसूरि आसि तत्थ पुवकई । तेरसवरिससएहिं अईएहिं वि बप्पभट्टिपहू ।।
. पोटसन. रिपोर्ट ३, पृ० २७२ । २. समय सुन्दरगणि ने गाथासहस्री सं० १६८६ में बनाई है । द्रष्टव्यपि. रि. ३, पृ. २९० ।
-विचारसारप्रकरण और गाथासहस्री में प्रस्तुत गाथाके चतुर्थ पाद में कुछ पाठ-भेद है, परन्तु अर्थ-तात्पर्य एक ही होने से उसके उल्लेख की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती।
३. ये आचार्य विक्रम की १५ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए हैं। ४. धर्मसागरजी १७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विद्यमान थे ।
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