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अर्थात् - विक्रम संवत् ५८५ में अस्त (स्वर्गस्थ ) होने वाले हरिभद्रसूरिरूप सूर्य भव्यजनों को कल्याण प्रदान करें ।'
यहां पर यह बात खास ध्यान में रख लेने की है कि यह गाथा मेरुतुङ्ग ने 'उक्तं च - 'कह कर अपने प्रबन्ध में उद्धत की है - नई नहीं बनाई है । मेरुतुङ्गाचार्य के निश्चित रूप से पहले के बने हुए किसी ग्रंथ में यह गाथा अभी तक देखने में नहीं आयी । इसलिए यह हम नहीं कह सकते कि यह ग था कितनी प्राचीन है । मेरुतुंग से तो निश्चित ही १००-२०० वर्ष पुरानी अवश्य होनी चाहिए । विचारश्रेणी में 'जं णि कालगओ' इत्यादि वाक्य से प्रारम्भ होने वाली और महावीर निर्वाण और विक्रम संवत् के बीच के राजवंशों का समयनिरूपण करने वाली जो तीन प्राकृत गाथायें हैं, प्रायः वैसी ही गाथाएं तो ' तित्थोग्गा' 'लियपइण्णा' नामक प्राकृत ग्रंथ में भी मिलती है; परन्तु हरिभद्र के मृत्यु- समय का विधान करने वाली प्रस्तुत गाथा वहां पर नहीं दिखाई देती । इसलिए यह भी नहीं कह सकते कि मेरुतुंग ने कौन से ग्रन्थ में से उद्ध की है । परन्तु इतनी बात तो सत्य है कि यह गाथा १४वीं शताब्दी से तो पूर्व की अवश्य बनी है ।
'गाथासहस्री' नामक ग्रन्थ के, जो अवतरण दिये हैं उनमें यह प्राकृत गाथा भी सम्मिलित है । वहाँ पर 'पणसीए' के स्थान पर 'पणतीए' ऐसा पाठ मुद्रित है । इस पाठभेद के कारण कई विद्वान् ५८५ के बदले ५३५ के वर्ष में हरिभद्र की मृत्यु हुई मानते हैं; परन्तु वास्तव में वह पाठ अशुद्ध है । क्योंकि प्राकृत भाषा के नियमानुसार ३५ के अंक के लिये 'पणती से' शब्द होता है, 'पणतीए' नहीं । यद्यपि, लेखक - पुस्तक की नकल उतारनेवाले-के प्रमाद से 'पणती से' की जगह 'पणतीए' पाठ का लिखा जाना बहुत सहज है, और इसलिये ' पणतीए' के बदले 'पणती से' के शुद्ध पाठ की कल्पना कर ८५ के स्थान पर ३५ की संख्या गिन लेने में, भाषा विज्ञान की दृष्टि से कोई अनुचितता नहीं कही जा सकती; परन्तु प्रकृत विषय के कालसूचक अन्यान्य उल्लेखों के संवादानुसार यहाँ पर 'पणसीए' पाठ का होना ही युक्तिसंगत और प्रमाणविहित है । बहुत सी हस्तलिखित प्रतियों में भी यही पाठ उपलब्ध होता है । प्रो. वेबर ने बर्लिन के राजकीय पुस्तकालय में संरक्षित संस्कृत प्राकृत पुस्तकों की रिपोर्ट के भाग २, पृ. ९२३ पर भी 'पणसीए' पाठ को ही शुद्ध लिखा है और 'पणतीए को अशुद्ध ।
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