________________
( १८ ) ही दोनों समकालीन सिद्ध हुए और वैसा होने पर हरिभद्र का उक्त गाथा विहित सत्ता-समय असत्य सिद्ध होगा।
इस प्रकार हरिभद्रसूरि के समय-विचार में सिद्धर्षि का सम्बन्ध एक प्रधान स्थान रखता है। इसलिये प्रथम यहाँ पर इस बात का ऊहापोह करना आवश्यक है कि सिद्धर्षि के इस कथन के बारे में उनके चरित्र लेखक जैन ग्रन्थकारों का क्या अभिप्राय है ।
सिद्धर्षि के जीवन-वृत्तान्त की तरफ दृष्टिपात करते हैं तो उनके निज के ग्रन्थ में तो इस उपर्युक्त प्रशस्ति के कथन के सिवा और कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। इसलिये उनके निज के ही शब्दों में तो अपने को यह बात नहीं मालूम हो सकती कि हरिभद्र को वे अपने धर्मबोधकर गुरु किस कारण से कहते हैं और ललितविस्तरावृत्ति को अपने ही लिये बनाई गई क्यों बतलाते हैं ? __उत्तरकालीन जैन लेखकों के लेखों-ग्रन्थों में सिद्धर्षि के जीवनवृत्तान्त के विषय में जो कथा प्रबन्धादि उपलब्ध होते हैं उनमें कालक्रम की दृष्टि से सबसे प्राचीन तथा वर्णन की दृष्टि से भी प्रधान ऐसा प्रभावकचरितान्तर्गत 'सिद्धर्षि-प्रबन्ध' है। इस प्रबन्ध में सिद्धर्षि का जो जीवन वर्णित है उसमें इस बात का किञ्चित् भी जिक्र नहीं किया गया है कि हरिभद्र, सिद्धर्षि के एक गुरु थे और उनसे उनको धर्मबोध मिला था। हरिभद्र और सिद्धर्षि के बीच में एक प्रकार से गुरु शिष्य का सम्बन्ध था, इस बात का सूचन प्रभावकचरिकार ने न हरिभद्र के ही प्रबन्ध में किया है और न सिद्धर्षि के ही प्रबन्ध में । केवल इतना ही नहीं, परन्तु इन दोनों के चरितप्रबन्ध पास-पास में भी वे नहीं रखते। उन्होंने हरिभद्र का चरित्र ९ वें प्रबन्ध में गुंथा है और सिद्धर्षि का १४वें प्रबन्ध में। इसलिये प्रभावकचरितकार के मत से तो हरिभद्र और सिद्धर्षि के बीच में न किसी प्रकार का साक्षात् गुरु-शिष्य जैसा सम्बन्ध था और न वे दोनों समकालीन थे।
परन्तु सिद्धर्षि ने अपनी कथा की प्रशस्ति में जो उक्त प्रकार से हरिभद्र का उल्लेख किया है, उसे प्रभावकचरितकर्ता जानते ही नहीं हैं यह बात नहीं है। उन्होंने सिद्धर्षि का वह कथन केवल देखा ही नहीं है किन्तु उसे अपने प्रबन्ध में यथावत् उद्ध त कर लिया है। परन्तु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .