Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 24
________________ ( १९ ) उस कथन का सम्बन्ध वे और ही तरह से लगाते हैं। उनका कहना है कि सिद्धर्षि ने जैन शास्त्रों का पूर्ण अभ्यास करके, फिर न्याय शास्त्र का विशिष्ट अभ्यास करने के लिये किसी प्रान्तस्थ बौद्ध विद्यापीठ में जाकर रहने का विचार किया। जाने के पहले उन्होंने जब अपने गुरु गर्गस्वामी के पास अनुमति मांगी तो गुरुजी ने अपनी असम्मति प्रकट की और कहा कि वहां पर जाने से तेरा धर्म-विचार भ्रष्ट हो जायगा। सिर्षि ने गुरुजी के इस कथन पर दुर्लक्ष्य कर चल ही दिया और अपने इच्छित स्थान पर जाकर बौद्ध प्रमाण शास्त्र का अध्ययन करना शुरू किया। अध्ययन करते-करते उनका विश्वास जैनधर्म के ऊपर से उठता गया और बौद्ध धर्म पर श्रद्धा बढ़ती गई। अध्ययन की समाप्ति हो जाने पर, उन्होंने बौद्धधर्म की दीक्षा लेने का विचार किया, परन्तु, पहले ही से बचनबद्ध हो आने के कारण, जैन धर्म का त्याग करने के पहले वे एक बार अपने पूर्व गुरु के पास मिलने के लिये आये । शान्तमूर्ति गर्गमुनि ने सिद्धर्षि की स्वधर्म पर से चलित चित्तता को देख कर अपने मुख से किसी प्रकार का उन्हें उपदेश देना उचित नहीं समझा। उन्होंने उठ कर पहले सिद्धर्षि का स्वागत किया और फिर उन्हें एक आसन पर बिठा कर हरिभद्रसूरि की बनाई हुई ललितविस्तरावृत्ति, जिसमें बौद्ध वगैरह सभी दर्शनों के सिद्धान्तों की बहुत ही संक्षेप में परन्तु बड़ी मामिकता के साथ मीमांसा कर जैनतीर्थङ्कर की परमाप्तता स्थापित की गई है, उनको पढ़ने के लिये दी। पुस्तक देकर गर्गमुनि जिन चैत्य को वन्दन करने के लिये चले गये और सिद्धर्षि को कह गये कि, जब तक मैं चैत्यवन्दन करके वापस आऊं तब तक तुम इस ग्रन्थ को वांचते रहो। सिद्धर्षि गुरुजी के चले जाने पर ललितविस्तरा को ध्यान पूर्वक पढ़ने लगे। ज्यों-ज्यों वे हरिभद्र के निष्पक्ष, युक्तिपूर्ण, प्रौढ़ और प्राञ्जल विचार पढ़ते जाते त्यों-त्यों उनके विचारों में बड़ी तीव्रता के साथ क्रांति होती जाती थी । सारा ग्रन्थ पढ़ लेने पर उनका विश्वास जो बौद्ध संसर्ग के कारण जैनधर्म पर से उठ गया था वह फिर पूर्ववत् दृढ़ हो गया और बौद्ध धर्म पर से उनकी रुचि सर्वथा हट गई। इतने में गर्गमुनि जी चैत्यवन्दन करके उपाश्रय में वापस आ पहुँचे। सिद्धर्षि गुरुजी को आते देख एक दम आसन पर से उठ खड़े हुए और उनके पैरों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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