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(१६) विषं विनिर्धूय कुवासनामयं व्यचीचरद् यः कृपया मदाशये । अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥ (१७) अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । - मदर्थेव कृता येन वृत्तिर्ललितविस्तरा ॥
इन पद्यों का भावार्थ इस प्रकार है-
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(१५) आचार्य हरिभद्र मेरे धर्मबोधकर-धर्म का बोध ( उप, देश) करने वाले - गुरु हैं । इस कथा के प्रथम प्रस्ताव में मैंने इन्हीं धर्मबोधक गुरु का निवेदन किया है ।
(१६) जिसने कृपा करके अपनी अचिन्त्य शक्ति के प्रभाव से मेरे हृदय में से कुवासना - दुर्विचार रूप विष को निकाल कर सुवासनासद्विचार स्वरूप सुधा (अमृत) का सिंचन किया है, उस आचार्य हरिभद्र को नमस्कार हो ।
(१७) उन्होंने (हरिभद्रसूरि ने ) अनागत याने भविष्य में होनेवाले मुझको जानकर मानों मेरे लिये ही चैत्यवन्दनसूत्र का आश्रय लेकर ललितविस्तरा नामक वृत्ति बनाई है ।
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इस अवतरण से ज्ञात होता है कि सिद्धर्षि हरिभद्र को एक प्रकार से अपना गुरु मानते हैं । वे उन्हीं से अपने को धर्मप्राप्ति हुई कहते हैं और ललितविस्तरावृत्ति नामक ग्रन्थ, जो हरिभद्र के ग्रन्थों में से एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है उसे, अपने ही लिये बनाया गया - बतलाते हैं । इस प्रकार इस प्रशस्तिगत कथन के प्रथम दर्शन से तो हरिभद्र और सिद्धर्षि के बीच में गुरु-शिष्यभाव का होना स्थापित होता है और जब ऐसा गुरु-शिष्य भाव का सम्बन्ध उनमें रहा तो फिर वे प्रत्यक्ष
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अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने वाले बहिर्मुख आत्मा नहीं थे । वे बड़े नम्र, लघुताप्रिय और अध्यात्मस्वरूप में लीन रहने वाले सन्त पुरुष थे । वे अपने लिये 'सिद्धान्तनिधि' 'महाभाग' और 'गणधर स्तुत्य' जैसे मानभरे हुए विशेषणों का प्रयोग कभी नहीं कर सकते ।
१. उपमितिभवप्रपञ्चकथा, (बिब्लिओथिका इण्डिका. ) पृ. १२४० ।
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