Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 21
________________ ( १६ ) इस कथा की प्रशस्ति में सिद्धर्षि ने प्रारम्भ में ९ श्लोकों द्वारा अपनी मूल गुरुपरम्परा का उल्लेख कर, फिर हरिभद्रसूरि की विशिष्ट प्रशंसा की है और उन्हें अपना धर्म बोधकर गुरु बतलाया है। प्रशस्ति में हरिभद्र की प्रशंसा वाले निम्नलिखित तीन पद्य मिलते (१५) आचार्यहरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्ये निवेदितः ॥ दिन प्रातःकाल में २ घंटे तक पुष्य नक्षत्र में रह कर फिर अश्लेषा नक्षत्र में चला जाता है; इसलिये नक्षत्र उस दिन ग्रन्थ में लिखे अनुसार नहीं मिलता । इसके सिवा इस कल्पना में एक बड़ा और प्रत्यक्ष विरोध भी है । उक्त प्राकृत गाथा में जो हरिभद्र का · मृत्युसमय बतलाया गया है उससे यह समय लगभग १०० वर्ष जितना उल्टा पीछे चला जाता है-अर्थात् सिद्धर्षि हरिभद्र के भी शतवर्ष पूर्ववर्ती हो जाते हैं । सिद्धर्षि का, जैसा कि आगे चल कर स्पष्ट किया जायगा, हरिभद्र के पहले होना सर्यथा असिद्ध है । इसलिये सिद्धर्षि का लिखा हुआ वह संवत् विक्रम संवत् ही है ।। प्रो. पीटर्सन ने अपनी चौथी रिपोर्ट के ५ वें पृष्ठ पर सिद्धर्षि के इस संवत् को परिनिर्वाण संवत् मान कर और उसके मुकाबले में विक्रम संवत् ४९२ के बदले ५९२ लिख कर गाथोक्त हरिभद्र के समय के साथ मेल मिलाना चाहा है। परन्तु इस गिनती में तो प्रत्यक्ष रूप से ही १०० वर्ष की भद्दी भूल की गई है। क्योंकि ९६२ में से ४७० वर्ष निकाल देने से शेष ४९२ रहते हैं, ५९२ नहीं। इसलिये पीटर्सन की कल्पना में कुछ भी तथ्य नहीं है । जेकोबी ने भी इस कल्पना को त्याज्य बतलाया है । द्रष्ट व्यउपमितिभवप्रपंच की प्रस्तावना--पृष्ठ ८ की पाद टीका। १. डॉ. जेकोबी इन पद्यों के पहले के और ३ (नं. १२-१३-१४ वाले) श्लोकों को भी हरिभद्र की ही प्रशंसा में लिखे हुए समझते हैं और उनका भाषान्तर भी उन्होंने अपनी प्रस्तावना (पृ. ५) में दिया है। परन्तु यह उनका भ्रम है। उन तीन पद्यों में हरिभद्र की प्रशंसा नहीं है परन्तु सिद्धर्षि की प्रशंसा है । इनके पूर्व के दूसरे दो (नं० १०-११) श्लोकों में भी सिद्धषि का ही जिक्र है । वास्तव में हमारे विचार से नं० १० से १३ तक के ४ पद्य स्वयं सिद्ध र्षि के बनाए हुए नहीं हैं, परन्तु उनके शिष्य या अन्य किसी दूसरे विद्वान् के बनाये हुये हैं । अतएव वे यहाँ पर प्रक्षिप्त हैं । सिद्धषि, स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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