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२३. श्रावकप्रज्ञप्ति ।
२४. समराइच्चकहा । २५. सम्बोधप्रकरण । २६. सम्बोधसप्ततिकाप्रकरण |
हरिभद्रसूरि के बनाये हुए ग्रन्थों की संख्या इतनी विशाल होने पर भी उसमें कहीं पर उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी विशेष बात लिखी हुई नहीं मिलती । भारत के अन्यान्य प्रसिद्ध विद्वानों की तरह उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में, अपने जीवन सम्बन्धी किसी प्रकार का उल्लेख नहीं किया । लिखने में मात्र अपने संप्रदाय 'गच्छ' गुरु और एक विदुषी धर्मजननी आर्या का कई जगह नाम लिखा है । यह भी एक सौभाग्य की बात है क्योंकि दूसरे ऐसे अनेक विद्वानों के बारे में तो इतना भी उल्लेख नहीं मिलता । हरिभद्र के उल्लेखानुसार, उनका संप्रदाय श्वेताम्बर, गच्छ का नाम विद्याधर, गच्छपति आचार्य का नाम जिनभट, दीक्षाप्रदायक गुरु का नाम जिनदत्त और धर्मजननी साध्वी का नाम याकिनी महत्तरा था । इन सब बातों का उल्लेख, उन्होंने एक ही जगह, आवश्यकसूत्र की टीका के अन्त में इस प्रकार किया है :
" समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका । कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्य जिनदत्तीशिष्यस्य धर्मतो याकिनी महत्तरासूनो रल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ' ।”
१. पीटर्सन की तीसरी रिपोर्ट, पृ. २०२; तथा चौथी रिपोर्ट, परिशिष्ट, पृ. ८७ | वेबर की बर्लिन की रिपोर्ट, पुस्तक २, पु.
७८६ :
हरिभद्रसूरि के गुरु नाम के सम्बन्ध में डा० जेकोबी और अन्य कई विद्वानों को खास भ्रम रहा है । वे हरिभद्र के गुरु का नाम जिनभद्र या जिनभट समझते हैं । डॉ० जेकोबी ने, जर्मन ओरियन्टल सोसाइटी के ४० वें जर्नल (पुस्तक) में पृ० ९४ पर, यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि, आचाराङ्गसूत्र की टीका बनाने वाले आचार्य शीलाङ्क और हरिभद्र दोनों गुरुबन्धु थे - एक ही गुरु के शिष्य थे । क्योंकि दोनों के गुरु का नाम जिनभद्र या जिनभट है और इसी लिये वे दोनों समकालीन भी थे । परन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि इस आवश्यकसूत्र की टीका के
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