Book Title: Haribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Author(s): Jinvijay
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ ९ ) संन्यासावस्था में जैनसमाज को निरंतर सद्बोध देने के अतिरिक्त उन्होंने अपना समग्र जीवन सतत साहित्यसेवा में व्यतीत किया था । धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक विषय के अनेकानेक उत्तमोत्तम मौलिक ग्रन्थ और ग्रन्थविवरण लिखकर उन्होंने जैन साहित्य का और उसके द्वारा सम्पूर्ण भारतीय साहित्य का भी भारी उपकार किया है। जैन धर्म के पवित्र ग्रन्थ जो आगम कहे जाते हैं, बे प्राकृत भाषा में होने के कारण विद्वानों को और साथ में अल्प बुद्धि वाले मनुष्यों को भी अल्प उपकारी हो रहे थे इस लिये उन पर सरल संस्कृत टीकायें लिख कर उन्हें सबके लिये सुबोध बना देने के पुण्य कार्य का प्रारम्भ इन्हीं महात्मा ने किया था । इनके पहले आगम ग्रन्थों पर शायद संस्कृत टीकायें नहीं लिखी गई थीं । उस समय तक प्राकृत भाषामय चूर्णियां ही लिखी जाती थीं । वर्तमान में तो इनके पूर्व की किसी सूत्र की कोई संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं है । इनके बनाये हुए आध्यात्मिक और तात्त्विक ग्रन्थों के स्वाध्याय से मालूम होता है कि ये प्रकृति से बड़े सरल, आकृति से बड़े सौम्य और वृत्ति से बड़े उदार थे। इनका स्वभाव सर्वथा गुणानुरागी था । जैनधर्म के ऊपर अनन्य श्रद्धा रखने और इस धर्म के एक महान् समर्थक होने पर भी इनका हृदय निष्पक्षपातपूर्ण था । सत्य `का आदर करने में ये सदैव तत्पर रहते थे । धर्म और तत्त्व के विचारों का ऊहापोह करते समय ये अपनी मध्यस्थता और गुणानुरागिता की किञ्चित् भी उपेक्षा नहीं करते थे । जिस किसी भी धर्म या संप्रदाय का जो कोई भी विचार इनकी बुद्धि में सत्य प्रतीत होता था उसे ये तुरन्त स्वीकार कर लेते थे । केवल धर्म-भेद या संप्रदाय-भेद के कारण ये किसी पर कटाक्ष नहीं करते थे - जैसा कि भारत के बहुत प्रसिद्ध आचार्यों और दार्शनिकों ने किया है । बुद्धदेव, कपिल, व्यास, पतञ्जलि आदि विभिन्न धर्म-प्रवर्तकों और मतपोषकों का उल्लेख करते समय इन्होंने उनके लिये भगवान्, महामुनि, महर्षि इत्यादि गौरव सूचक विशेषणों का प्रयोग किया है - जो हमें इस प्रकार के दूसरे ग्रन्थकारों की लेखन शैली में बहुत कम दृष्टिगोचर होती है । कहने का तात्पर्य यही है कि ये एक बड़े उदारचेता साधु पुरुष और सत्य के उपासक थे । भारत वर्ष के समुचित धर्माचार्यों के पुण्य से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80