Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 11
________________ 10 / गुणस्थान विवेचन यह विचार तो ऐसा हुआ, जैसे कोई अपने मुख से जिनेन्द्रदेव के सर्व गुणों का वर्णन करना चाहे, किन्तु वह कैसे बने ? 1. प्रश्न : नहीं बनता है तो उद्यम क्यों कर रहे हो ? उत्तर : जैसे जिनेन्द्रदेव के सर्व गुणों का वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं है; फिर भी भक्त पुरुष भक्ति के वश होकर अपनी बुद्धि के अनुसार गुणवर्णन करता है; उसीप्रकार इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण अर्थ का प्रकाशन करने की सामर्थ्य न होने पर भी अनुराग के वश मैं अपनी बुद्धि-अनुसार (गुण) अर्थ का प्रकाशन करूँगा। 2. प्रश्न : यदि अनुराग है, तो अपनी बुद्धि अनुसार ग्रन्थाभ्यास करो; किन्तु मंदबुद्धिवालों को तो टीका करने का अधिकारी होना उचित नहीं है ? उत्तर : जैसे किसी पाठशाला में बहुत बालक पढ़ते हैं, उनमें कोई बालक विशेष ज्ञान रहित है; फिर भी अन्य बालकों से अधिक पढ़ा है, तो वह अपने से अल्प पढ़नेवाले बालकों को अपने समान ज्ञान होने के लिये कुछ लिख देने आदि के कार्य का अधिकारी होता है। उसीप्रकार मुझे विशेष ज्ञान नहीं है; फिर भी कालदोष से मुझ से भी मंद बुद्धिवाले हैं और होंगे ही, उन्हीं के लिये मुझ समान इस ग्रन्थ का ज्ञान होने के लिये टीका करने का अधिकारी हुआ हूँ। 3. प्रश्न : यह कार्य करना है - ऐसा तो आपने विचार किया; किन्तु जिसप्रकार छोटा मनुष्य बड़ा कार्य करने का विचार करे, तो वहाँ पर उस कार्य में गलती होती ही है और वहाँ वह हास्य का स्थान बन जाता है। उसीप्रकार आप भी मंदबुद्धिवाले होकर इस ग्रन्थ की टीका करने का विचार कर रहे हैं, तो गलती होगी ही और वहाँ हास्य का स्थान बन जायेंगे। उत्तर : यह बात सत्य है कि मैं मंदबुद्धि होने पर भी ऐसे महान् ग्रन्थ की टीका करने का विचार कर रहा हूँ। वहाँ भूल तो हो सकती है; किन्तु सज्जन हास्य नहीं करेंगे।

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