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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
कम से होनेवाला वृद्धिभेद सिद्ध करता है कि ज्ञान गुण के बहुत से अंश हैं जो कि होनाधिक रूप से प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक गुण के अंश अनन्त हैं। इन्हीं का नाम अविभाग प्रतिच्छेद है।
देशच्छेदो हि यथा न तथा छेदो भवेद्गुणांशस्य ।
विष्कम्भस्य विभागारन्थूलो देशस्तथा न गुणभागः ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस प्रकार देश के छेद (देशांश) होते हैं उस प्रकार गुणों के छेद नहीं होते।देश के छेद विष्कभ(विस्तारचौड़ाई) क्रम से होते हैं क्योंकि देश एक मोटा पदार्थ है। गुण इस प्रकार का नहीं है और न उसके छेद ही ऐसे होते हैं किन्तु तरतम रूप से होते हैं। ___ भावार्थ-देश के छेद तो भिन्न-भिन्न प्रदेश स्वरूप होते हैं परन्तु गुण के छेद सर्व प्रदेशों में व्यापक रहते हैं। वे हीनाधिक रूप से होते हैं।
तीन श्लोक इकट्ठे ५७-५८-५९ कमोपदेशश्चार्य प्रवाहरूपा गुणाः स्वभावेन ।
अर्धछेदेन पुनश्छेतव्योऽपि च तरछेदन ॥ ७ ॥ अर्थ-इस विभाग कम का उपदेश इस प्रकार है। गुण स्वभाव से प्रवाह रूप है। उसे अच्छेद रूप से छेदना चाहिये और इस प्रकार जो एक अर्ध भाग प्राप्त हो, उसे पुन: अच्छेद रूप से छेदमा चाहिये।
एवं भूयो भूयस्तदर्धछेदैस्तदर्धछेदैश्च ।
यावच्छेत्तुमशक्यो यः कोऽपि निरंशको गुणांश: स्यात् ॥ ५४॥ अर्थ-इस प्रकार पुन:-पुनः उत्तरोत्तर प्राप्त हुये अर्धछेदों द्वारा तब तक विभाजित करते जाना चाहिये जब तक कि वह फिर से छेदा न जा सके और इस प्रकार जो कोई भी निरंश गुणांश प्राप्त होता है।
तेन गुणांशेन पुनर्गणिताः सर्वे भवन्त्यजन्तारते।
तेषामात्मा गुण इति नहि ते गुणतः पृथक्त्वसत्ताकाः ॥ ५९॥ अर्थ-उस गुणांश से गिनती करने पर वे सब गुणांश अनन्त होते हैं। उन्ही अंशों का आत्मा गुण कहलाता है।गुणों के अंश गुण से भिन्न सत्ता नहीं रखते (किन्तु उन अंशों का समूह ही एक सत्तात्मक गुण कहलाता है)।
अपि चांश: पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च ।
भेदच्छेदो भंगाः शब्दाश्चैकार्थवाचका एते ॥६०॥ अर्थ-अंश, पर्याय, भाग, हार, विध, प्रकार, भेद, छेद, भंग ये सब शब्द एक अर्थ के वाचक है (सबों का अर्थ 'पर्याय है।
सन्ति वाणांशाइति ये गणपर्यायास्ते व नाम्जापि ।
अविरुद्धमेतदेव हि पर्यायाणामिशिधर्मत्वात || १॥ ____ अर्थ-जितने भी गुणांश हैं वे ही गुण पर्याय कहलाते हैं। यह बात अविरुद्ध सिद्ध है क्योंकि अंश स्वरूप ही पर्याय होती हैं।
गुणपर्यायाणामिह के चिन्नामान्तरं वदन्ति बुधाः ।
अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थाटर्थपर्यया इति च ॥२॥ अर्थ-कितने ही बुद्धिधारी गुणपर्यायों का दूसरा नाम भी कहते हैं। गुण और अर्थ ये दोनों ही एक अर्थवाले हैं। इसलिये गुण-पर्यायों को अर्थपर्याय भी कहते हैं।
अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्ययाणां हि ।
व्यञ्जनपर्याया इति केचिन्नामान्तरं वदन्ति बुधाः ॥ ६ ॥ अर्थ-देशांशों के द्वारा जिन द्रव्य पर्यायों का ऊपर निरूपण किया जा चुका है उन द्रव्य पर्यायों को कितने ही बुद्धिशाली व्यञ्जन पर्याय इस नाम से पुकारते हैं।