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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-द्रव्य में अनन्त शक्तियां हैं। वे सभी एक-दूसर से भिन्न हैं। एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप कभी नहीं होती।
स्पर्शो रसश्च तान्धो वर्णो युगपद्याथा रसालफले ।
प्रतिनियतेन्द्रियगोचर चारित्ताले भवन्त्यनेकेऽपि || ५० ॥ अर्थ-जिस प्रकार आम के फल में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, चारों ही एक साथ पाये जाते हैं। वे चारों ही गुण भिन्न -भिन्न नियत इन्द्रियों द्वारा जाने जाते हैं इसलिये वे अनेक हैं।
भावार्थ-आम के फल में जो स्पर्श है उसका ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। रस का ज्ञान रसना-इन्द्रिय से होता है। गंध का ज्ञान नासिका से होता है। रूप का ज्ञान चक्षु से होता है। भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के विषय होने से वे चारों ही गुण भिन्न हैं। इसी प्रकार सभी गुणों के कार्य भी भिन्न-भिन्न हैं। इसलिये सभी गुण भिन्न-भिन्न हैं।
तदुदाहरणं चैतज्जीवे यद्ददर्शन गुणश्चैकः।
तन्न ज्ञानं न सवं चारित्रं वा न कश्चिदितरश्च ॥५१॥ अर्थ-सभी गुण पृथक-पृथक हैं। इस विषय में यह उदाहरण है - जैसे जीव द्रव्य में जो एक दर्शन नामा गुण है, वह ज्ञान नहीं हो सकता, न सुख हो सकता है, न चारित्र हो सकता है अथवा और भी किसी गुण स्वरूप नहीं हो सकता। दर्शन गुण सदा दर्शन रूप ही रहेगा।
एवं यः कोऽमि गुणः सोऽपि च न स्यात्तदन्यरूयो ता ।
स्वयमुच्छलन्ति तदिमा मिथो विभिन्नाश्वशक्तयोऽनन्ताः ॥ ५२।। अर्थ-इसी प्रकार जो कोई भी गुण है वह दूसरे गुण रूप नहीं हो सकता। इसलिये द्रव्य की अनन्त शक्तियों परस्पर भिन्नता को लिय हुये भिन्न-भिन्न कायाँ द्वारा स्वयं उदित हो रही हैं।
तासामन्यतरस्या भवन्त्यनन्ता निरंशका अशा: ।
तरतमभागविशेषैरंशच्छेदैः प्रतीयमानत्वात |॥ ५३॥ अर्थ-उक्त शक्तियों में से प्रत्येक शक्ति के अनन्त निरंश अंश होते हैं। हीनाधिक विशेष भेद से उन अंशों का परिज्ञान होता है।
दष्टान्तः सुगमोऽयं शुक्लं वासरततोऽपि शुक्लतरम् ।
शक्लतमं च ततः स्यादेशाश्चैते गणरस्थ शक्लस्य ॥ ५४॥ अर्थ-एक सफेद कपड़े का सुगम दृष्टान्त है। कोई कपड़ा कम सफेद होता है, कोई उससे अधिक सफेद होता है और कोई उससे भी अधिक सफेद होता है। ये सब सफेदी के ही भेद हैं। इस प्रकार की तरतमता (हीनाधिकता) अनेक प्रकार हो सकती है। इसलिये शुक्ल गुण के अनेक(अनन्त ) अंश कल्पित किये जाते हैं।] ( वास्तव में सफेदी पर्याय है। यहाँ दृष्टांत में गुण रूप से स्वीकार की है।
अथता ज्ञानं यावज्जीवस्यैको गुणोऽप्यरवण्डोऽपि !
सर्वजघन्यनिरंशच्छेदैरिव खण्डितोऽप्यनेक: स्यात् ॥५५॥ अर्ध- दूसरा दृष्टांत जीव के ज्ञान गुण का स्पष्ट है। जीव का ज्ञान गुण यद्यपि एक है और वह अखण्ड भी है तथापि सबसे जघन्य अंशों के भेद से खण्डित सरीखा अनेक रूप प्रतीत होता है।
भावार्थ-सूक्ष्म निगोदिया लब्धि-अपर्याप्तक जीव का अक्षर के अनन्तवें भाग जघन्य ज्ञान है। उस ज्ञान में भी अनन्त अंश ( अविभाग प्रतिच्छेद) हैं उसी निगोदिया की ऊपर की उत्तरोत्तर अवस्थाओं में थोड़ी-थोड़ी ज्ञान की वृद्धि हो जाती है। द्वीन्द्रिय आदिक त्रस पर्याय में और भी वृद्धि होती है। बढ़ते-बढ़ते उस जीव का ज्ञान गुण इतना विशाल हो जाता है कि चराचर जगत की प्रतिक्षण में होनेवाली सभी पर्यायों को एक साथ ही स्पष्टता से जानने लगता है। विचारशील अनुभव कर सकते हैं कि एक ही ज्ञान गुण में जघन्य अवस्था से लेकर कहाँ तक वृद्धि होती है। बस यही