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[ 3 ] वर्जने का कहा है । आशातना करने से बोधि-बीज का नाश होता है। हम पूछते हैं कि तुम स्थानकवासी अरिहंत देव को छोड़कर माताजी, पितरजी, रामदेवजी, खेतपाल बावजी, सती माता आदि लौकिक देव को मानता करते हो, सैंकड़ों कोस जासे हो और वांदते पूजते हो । बतलायो ! वे सब मूर्ति हैं या देव हैं ? यदि मूर्ति है तो वह पत्थर की है । माप वहाँ जाकर पत्थर के पास प्रार्थना करते हो या देव के पास ? यदि पत्थर के पास करते हो तो पत्थर तो तुम्हारे घर में भी बहुत हैं । यदि देव के पास करते हो तो घर बैठकर ही करना चाहिए । अब आपको बेधड़क कहना पड़ेगा कि "मूति द्वारा देव से प्रार्थना करते हैं।"
भोले भाईयो ! लौकिक देव की मूर्ति द्वारा देव से प्रार्थना करके धन - पुत्र प्रादि प्राप्ति की लौकिक प्राशा को सफल करना चाहते हो, तो लोकोत्तर देव श्री तीर्थंकर की मूर्ति द्वारा प्रार्थना करके अपनी लोकोत्तर - स्वर्ग - मोक्ष प्राप्ति की
आशा को सफल करने में क्यों शरमाते हो ? और सुनो ! स्थापना निक्षेपा वंदनीक है। जब धी तीर्थकर भगवान समवसरण में पूर्व दिशा सम्मुख बिराजते हैं और शेष तीन दिशा में भगवान की मूर्ति स्थापन की जाती है । तब तीन दिशा में भगवान की वाणी श्रवण करने वाले सभी उन मूर्ति को देखकर अपने मन में यही मानते हैं कि भगवान हमारे सम्मुख बिराजे हैं।
प्रिय ! यह बात सभी जैनी जानते हैं। कदाचित् आप कहो कि इसमें वदने का अधिकार नहीं है । तो सुनो ! सूत्र उववाइ में इसका खुलासा है। देखिए ! " अप्पेगइमा वंदणवत्तियाए अप्पेगइमा पूअणवत्तियार"। इसी से सिद्ध हुमा कि स्थापना निक्षेपा (मूर्ति) वंदनीक है। और सुनो ! पांडव चरित्र