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श्री वीर प्रभु का चारों निक्षेपा वन्दनीक हैं ।
(1) वीर प्रभु का नाम लेना सो नाम निक्षेपा । उसे वन्दनीक सब जैनी मानते हैं । इसके बारे में विवेचन करने की श्रावश्यकता नहीं है ।
(2) वीर प्रभु की प्रतिमा स्थापना निक्षपा है । यह भी वंदन है । इसी को प्राधुनिक नामधारी जैनी ( स्थानकवासीतेरापंथी) नहीं मानते । परन्तु अपने गुरु गुरुणी की 'प्रतिमा' "समाधि" 'पगलिया' फोटू को मानते हैं। जंस मारवाड़ में जेतारण के पास गिरिगांव में स्थानकवासी साधू हरखचन्दजी की तथा रुण ( जिला - नागौर) में हजारीमलजी म०की पाषाण की प्रतिमा है । लुधियाना में मोतीरामजी साधू की समाधि । अम्बाला में लालचन्दनी की समाधि और स्थानकवासी साधू-साध्वोयों के तथा तेरापंथी स्व० आचार्य श्री तुलसी व विद्यमान श्राचार्य महा प्रज्ञजी के संख्या बन्द फोटू मोजूद हैं। उनका तो भक्तिभाव उत्साह पूर्वक करते हैं । जिनकी गति का भी निश्चय नहीं है । और श्री परमेश्वर जो कि निश्चय ही मोक्ष में पधारे हैं। उनकी स्थापना (मूर्ति) की भक्ति पूजा करने में हिचकते हैं । अहो प्राश्चर्य ! आश्चर्य ! | बाजे बाजे ऐसा भी कह देते हैं कि " मूर्ति पत्थर है । अजीब है । इसकी भक्ति में क्या फायदा है ?' । ऐसा कहना अनंत संसार वृद्धि का कारण है । क्योंकि श्री गणधर महाराज ने तो मूर्ति को जिनप्रतिमा फरमाई है । ठवणा सच्चा कहा है । उसे पत्थर कहने वाले को उन्हीं के पूज्य जयमलजी ने प्रतिमा ने प्रतिमा कहे, भाटो कहे ते भ्रषृ " कहा है।
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सूत्र में " अरिहंताणं आसायणाए " अरिहन्तों की प्राशातना
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