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चतुर्थ अध्याय में अजीवास्तिकाय जिसके अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्रल समाविष्ट होते हैं, उसे सिद्ध करते हुए इनका जीव पर उपकार प्रतिपादित किया गया है।
अंत में समस्त अध्यायों का उपसंहार रूप अपने चिंतन का प्रस्तुतीकरण करते हुए सभी अध्यायों का सार संकलित किया गया है ।
इस प्रकार पाँच अध्यायों से युक्त शोध-प्रबन्ध की प्रस्तुति बेला में निश्चित् ही मैं आतंरिक आनंद और आह्लाद का अनुभव कर रही हूँ ।
यद्यपि मैं यह भी अनुभव करती हूँ कि द्रव्य के स्वरूप पर आज तक प्रचुर लिखा जा चुका है; यह विषय ही इतना गहरा व विस्तृत है कि इस पर जितना लिखा जायेगा, थोड़ा ही होगा क्योंकि यह त्रिपदी ही तो आगमों का मूल है। फिर भी मैं अनुभव करती हूँ कि इस 'थीसिस' का अपना मूल्य और उपयोग होगा ।
द्रव्य जैसे गूढ़ विषय के चुनाव पर यद्यपि मुझे मेरे शास्त्रीय ज्ञान की अल्पता का भान था, फिर भी मुझे लेना यही विषय था । इसका कारण गुरुवर्याश्री की आन्तरिक / उत्कट अभिलाषा एवं उनका आदेश था ।
वे स्वयं अपने युग की आगम ज्योति कहलाते थे और मुझसे वे अपेक्षा रखते थे कि मैं भी आगमज्ञान की आत्मसात् करूँ । उनके अनुरूप बनने की मेरी अभिलाषा तो अवश्य है पर आशा नहीं, फिर भी उनके ज्ञानालोक में से प्रकाश की कुछ रश्मियाँ मेरे पल्ले भी आएँ और आगमों के आंशिक ज्ञान को उपलब्ध करूँ, बस इसी भावना को मूर्तरूप देते हुए इस विषय का चुनाव किया और आत्मतोष है कि अपेक्षित ज्ञानार्जन यद्यपि नहीं हुआ, फिर भी 'कुछ' कदम अवश्य बढ़े।
में
विषय का पंजीकरण होने के बाद कुछ संयमी जीवन से जुड़ी व्यस्तता होने के कारण कार्य में शिथिलता आ गयी थी, परन्तु जब गतवर्ष की जन्मदिन की कविता पूज्य ज्येष्ठ बन्धु श्री मणिप्रभजी ने अपने अन्तर्मन में भरे स्नेह से आपूरित "पी. एच. डी. करना ही है, और वह भी शीघ्र” - ये उद्गार व्यक्त किये तो मैं भी इस कार्य को आगे बढ़ाने में तत्पर हो गयी । जन्म-दिन की कविता का वह पद्यांश यह
"वो सूर्योदय जिस दिन होगा, मुझको यह संवाद मिलेगा । बनोगी जब तुम 'डॉक्टर' बहिना, मेरे मन का फूल खिलेगा ।। शोध-ग्रन्थ की निर्मिति में श्रम-समय तुम्हें देना है सारा ।
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